५४३ वर्ष ईसा पूर्व भगवान बुद्ध ने कुशीनगर में जो महापरिनिर्वाण प्राप्त किया वह उनका सातवां परिनिर्वाण था। इसके पूर्व वह यहां ६ बार निर्वाण प्राप्त कर चुके थे। बौद्ध साहित्य से मिली जानकारी के अनुसार अंतिम परिनिर्वाण जो कुशीनगर में हुआ वह अकारण नहीं था। बल्कि स्वयं भगवान बुद्ध ने ही इसे चुना था। ॥ इस सम्बंध में उन्होंने अपने शिष्य आनंद स्थविर को कारण बताते हुए कहा था कि परिनिर्वाण के बाद मेरा जन्म स्थान लुम्बिनी‚ बुद्धत्व प्राप्ति स्थान बोधगया‚ धर्मचक्र प्रवर्तन स्थान सारनाथ तथा परिनिर्वाण स्थल कुशीनारा अब कुशीनगर बौद्धों के चार महातीर्थ होंगे। जब आनंद ने बुद्ध से कहा कि आप इस छोटे जंगली नगर में परिनिर्वाण को न प्राप्त हों बल्कि राजगिरी‚ सारनाथ‚ साकेत‚ कौशाम्बी आदि किसी महानगर में निर्वाण प्राप्त करें‚ तब उन्होंने आनंद को बताया कि कुशीनगर को छोटा स्थान मत समझो। मैं यहां चक्रवर्ती राजा के रूप में राज कर चुका हूं। यहां मेरी ६ बार मृत्यु हुई है और यह चारों महातीर्थों में सबसे प्रधान है। ॥ प्राचीन काल में इस स्थान का नाम कुसावती था। जो महाराजा कुश के नाम पर था (लेकिन रामायण कालीन नहीं)। तबकी कुसावती जो बाद में कुशीनारा हुई यह देश के १६ महाजनपदों जो मल्ल राजाओं की थी‚ की राजधानी थी। यहां के राजा चक्रवर्ती महाराज सुदर्शन थे। जो स्वयं भगवान बुद्ध ही थे॥। कुछ साहित्यों में उल्लेख मिलता है कि यहां उन्होंने इसके अलावे तीतर व मृग के रूप में भी अवतार लिया था। यहां परिनिर्वाण लेने का उन्होंने आनंद को तीन कारण बताया। उन्होंने कहा था कि अगर वह कुशीनारा नहीं गए तो यहां पहला महासुदर्शन सुत का उपदेश नहीं हो पाएगा। दूसरा यहां का रहने वाला सुभद्र जो उनका अंतिम शिष्य बना उसकी प्रवज्या (शिष्य) बनाने का काम नहीं हो पाएगा और तीसरा उनके निर्वाण प्राप्त होने के बाद उनकी अस्थियों के विभाजन को लेकर यहां महाकलह होगा और भीषण रक्तपात की स्थिति आ जाएगी। जिसको यहां का रहने वाला द्रोण नाम का ब्राह्मण ही शांत करा पाएगा और वैसा ही हुआ। ॥ भगवान बुद्ध ने अपनी अंतिम पदयात्रा वैशाली से प्रारम्भ की। अपने शिष्यों के साथ माघ माह के अंत में वह बिहार के भंड़ग्राम‚ जम्बू ग्राम‚ हस्तिग्राम (हथुआ) तथा अम्बग्राम होते हुए तमकुही के पास अमया‚ बदुराव होते हुए पावानगर पहुंचे। जहां अपने शिष्य चुन्द के यहां आखिरी भोजन किया। जिसके बाद वह अतिसार से ग्रसित हो गए। वहां से आते हुए उन्होंने रास्ते में कुकुत्था नदी में स्नान किया। हांलाकि स्नान करने का स्थान वर्तमान कुकुत्था से दक्षिण है॥। बताया जाता है कि वह पावानगर से कुशीनगर के बीच २५ स्थानों पर विश्राम करते हुए हिरण्यवती नदी के किनारे शाल वन में पहुंचे और यहां उन्होंने आनंद से कहा कि वहां के दो पेडÃों के बीच उत्तर सिरान्हा करने मंच बना दो जहां वह दाहिने करवट सिंह शैया मुद्रा में लेटे। यहां भारी संख्या में लोग उनका अंतिम दर्शन करने आये। सबसे अंत में सुभद्र आया जिसे आनन्द ने मिलने से मना कर दिया। स्वयं भगवान बुद्ध ने उसे बुलाया और उसे अंतिम शिष्य बनाया और उसी दिन भोर में उन्होंने परिनिर्वाण प्राप्त किया। जिसके बाद उनकी अस्थियों को लेकर वही स्थिति आयी जो उन्होंने बतायी थी और द्रोण ने ही अस्थियों का विभाजन कर मल्ल राजाओं को देकर उन्हें वापस भेजा। भगवान बुद्ध का जन्म और ज्ञान प्राप्ति भी बुद्ध पूर्णिमा के दिन ही हुई थी॥। कुशीनगर अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट से इस वर्ष बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर श्रीलंका के बौद्ध श्रद्धालुओं का बडÃा दल कुशीनगर आने वाला था क्योंकि कुशीनगर इंटरनेशनल एयरपोर्ट की सारी बाधाएं दूर हो चुकी हैं। लेकिन कोरोना के कारण इस बार का बुद्ध जयंती कार्यक्रम प्रतीकात्मक ही होगा। वरना इस बुद्ध पूर्णिमा पर पर्यटकों‚ श्रद्धालुओं के लिए प्रशासन ने भी भव्य तैयारी की थी। यहां बुद्ध पूर्णिमा से एक दिन पहले विश्व शांति के लिए विशेष पूजा दीपोत्सव के कार्यक्रम होतें हैं। शोभायात्रा में देश विदेश से आने वाले बौद्ध श्रद्धालुओं के साथ साथ स्थानीय जनप्रतिनिधि गणमान्य लोग तथा वरिष्ठ अधिकारी भी भाग लेते हैं। इस अवसर पर बौद्ध भिक्षुओं को भोजन व खीर दान तथा धम्मोपदेशना दी जाती है। बोधिवृक्ष को जलदान के अलावा पूरे दिन गोष्ठियों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का सिलसिला चलता है। बुद्ध पूर्णिमा से ही एक माह तक चलने वाले मेले का भी शुभारंभ होता है॥।
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