जनगणना में जाति के सवाल पर देश की राजनीति में बवाल उठ खड़ा हुआ है। दलित–पिछड़ी जातियों से जुड़े हुए नेता इस प्रश्न पर एकमत हैं। बिहार में नीतीश और तेजस्वी राजनीतिक तौर पर धुर विरोधी होते हुए भी इस प्रश्न पर एकजुट हैं। सुप्रसिद्ध समाजविज्ञानी सतीश देशपांडे ने अपने एक लेख में प्रश्न उठाया है कि जाति जनगणना से कौन डर हैॽ उनका ही जवाब है‚ मुट्ठी भर तथाकथित >ंची जातियों के लोग जो अपनी वास्तविक जनसंख्या से परिचित हैं। दरअसल‚ वे इस बात से भी परिचित हैं कि इन आंकड़ों के सार्वजनिक होने पर एक बार फिर १९९० जैसी सामाजिक उथल–पुथल हो सकती है। लेकिन संसद के इस पावस सत्र में ही गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने स्पष्ट कर दिया है कि जनगणना में जाति की जानकारी इकठ्ठा करने का सरकार का इरादा नहीं है। गौरतलब यह है कि मनमोहन सिंह की कांग्रेसी सरकार का निश्चय इसे करने का था॥। हमारे देश में ब्रिटिश हुक्मरानों ने सेन्सस अथवा जनगणना का व्यवस्थित आरंभ किया था। पहली दफा जनगणना १८८१ में की गई। उसके बाद हर दस साल पर जनगणना होती रही। इसमें जाति गणना भी होती थी। इसी गणना से अंबेडकर जैसे लोगों को अछूतों की स्थितियों के बारे में विस्तृत जानकारी मिली थी। जनगणना में बहुत सारी जानकारियां इकट्ठी की जाती हैं। किस जाति में कितने अंधे‚ रोगी‚ अनपढ़‚ पढ़े–लिखे हैं से लेकर बहुत कुछ। इन्हीं से प्राप्त आंकड़ों पर योजनाएं बनती हैं। जाति संबंधी जितने भी निर्णय लिए गए हैं‚ उन सबका आधार १९३१ का सेन्सस है। १९४१ की जनगणना दूसरे विश्व युद्ध के कारण सरसरी तौर पर कर ली गई थी। व्यापक सर्वे नहीं हुआ था‚ इसलिए जाति–आधारित जनगणना संभव नहीं हुई थी। ॥ १९४७ में देश के आजाद होने के बाद १९५१ में व्यवस्थित सर्वेक्षण हुआ लेकिन नई सरकारी नीतियों ने जाति–आधारित जनगणना की जरूरत नहीं समझी। संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए जनसंख्या के आधार पर सरकारी नौकरियों और कुछ दूसरे क्षेत्र (जैसे धारासभाओं) में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी‚ इसलिए उनकी संख्या गिनी गई। लेकिन अन्य जाति के बारे में कोई जानकारी इकट्ठी नहीं की गई। लेकिन अब जब कि अन्य पिछड़े वर्गों और सामान्य वर्गों के लिए भी सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में नामांकन में आरक्षण के प्रावधान कर दिए गए हैं‚ तब आवश्यक है कि जाति का कॉलम भी जनगणना में जोड़ दिया जाए। मेरे जानते अब तक सेन्सस में २९ सवाल पूछे जाते हैं‚ बस एक सवाल और बढ़ने वाला है। इसमें हर्ज क्या हैॽ इससे इस बात की भी जानकारी मिलती कि अन्य पिछड़े वर्गों की जो सूची है‚ उसमें जिन जातियों को रखा गया है‚ उनकी वास्तविक संख्या और लाभाÌथयों में उनकी जाति की क्या हिस्सेदारी रही है। समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए भी यह आवश्यक है। ॥ लेकिन देख रहा हूं कि कुछ खास लोग जाति गणना पर अधिक जोर दे रहे हैं‚ और कुछ खास लोग इसे रोकने में वैसी ही रुûचि ले रहे हैं। इस पर जोर देने वाले लोगों में पिछड़े वर्गों की उन जातियों के लोग अधिक शामिल हैं‚ जिनका ध्येय किसी तरह का सामाजिक परिवर्तन या न्याय नहीं है‚ बल्कि यह जानना है कि उनकी जाति की संख्या कितनी अधिक है ताकि यह जानकर वह अपने साम्राज्य और दबदबे की घोषणा कर सकें। लेकिन मुट्ठी भर ऐसे सिरफिरों और जातिवादियों के लिए हम एक जरूरी काम स्थगित भी नहीं कर सकते। वास्तविक मिथ्याचार इसे रोकने वाले कर रहे हैं। शायद आरएसएस जातिगणना के पक्ष में नहीं है। कांग्रेस भी लंबे समय तक नहीं थी। हर कोई जान रहा है कि संघ की मनसा क्या है। संघ का एकल हिंदुत्व का विचार इससे कमजोर होता है। कट्टर इस्लामी चेतना के लोग भी जाति गणना नहीं चाहते। उन्हें लगता है इस्लाम और मुसलमान एक है। यहां जुलाहे और शेख सैयद का भेद नहीं है। ॥ हकीकत यह है कि मुसलमानों के बीच जातिभेद की गहराई अधिक है। वहां हिंदुओं की तरह बिचौलिया जातियों का अभाव है। इस कारण वहां सामाजिक नफरत अधिक है। असराफ और अरजाल के जातिभेद के जाने कितने किस्से हैं‚ इस सच्चाई को शेख–सैय्यद और मुल्ला–मौलवी नकारना चाहता है। संघ को भी लगता है कि हिंदू एक हैं‚ लेकिन हकीकत है कि हिंदू‚ मुसलमान‚ सिख‚ ईसाई सब के बीच भयावह जातिवाद है। मुसलमानों का दो तिहाई हिस्सा पिछड़ा है‚ और वह मंडल कमीशन वाली पिछड़े वर्ग की सूची में है। यही नहीं सामान्य वर्ग का भी एक हिस्सा‚ जो हिंदुओं का द्विज तबका है‚ पिछड़े वर्ग की सूची में है। कई ब्राह्मण जातियां ओबीसी में शामिल हैं जबकि कई निम्नवर्णीय जातियां सामान्य वर्ग में हैं। गुजरात में कुर्मी पटेल ओबीसी से बाहर सामान्य वर्ग में हैं जबकि वहां राजपूत ओबीसी में हैं। बिहार‚ यूपी में कई ब्राह्मण समुदाय ओबीसी में हैं। जाट हमेशा निम्नवर्णीय बतलाए गए‚ लेकिन वे मंडल आयोग की सिफारिशों में सामान्य वर्ग में रहे। ॥ मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के लिए भी दस फीसद आरक्षण की व्यवस्था की है। इसका कोई बड़ा विरोध नहीं हुआ अर्थात इसे पिछड़े वर्गों के नेताओं का भी मौन समर्थन मिला। लेकिन विश्लेषण बताता है कि ओबीसी सामाजिक ग्रुप को सैद्धांतिक स्तर पर ही इससे बहुत नुकसान हो रहा है। अजा/अजनजा को आबादी के अनुसार आरक्षण मिल रहा है। सामान्य वर्गों की संख्या यदि पंद्रह फीसद है ( जैसे हमारे बिहार में १३ फीसद है) तो उन्हें अपनी आबादी का दो तिहाई आरक्षण मिल रहा है। पिछड़े वर्गों की कथित आबादी ५४ फीसद है। इसमें ४६ फीसद हिंदू ओबीसी और ८ फीसद मुस्लिम ओबीसी हैं। मंडल कमीशन की सिफारिशों के अनुसार इन्हें उनकी आबादी का आधा यानी २७ फीसद आरक्षण मिल रहा है। अनुसूचित जातियों की तरह यदि आबादी के अनुसार उन्हें आरक्षण मिलता‚ तब उन्हें ५४ फीसद आरक्षण मिलना चाहिए। यदि सामान्य वर्गों की तरह उन्हें उनकी संख्या का दो तिहाई भी मिले तो यह प्रतिशत में ३६ प्रतिशत होना चाहिए। सबसे कम आरक्षण उन्हें किस आधार पर मिल रहा हैॽ इतने बड़े पाखंड पर किसी की जुबान नहीं खुल रही। ॥
Related Posts
अशासकीय नर्सरी/प्राथमिक,उच्च प्राथमिक अंग्रेजी व हिन्दी माध्यम के विद्यालयों की मान्यता के मानक एवं शर्तें
![विद्यालय](https://upsecondaryteachers.com/wp-content/uploads/2023/09/Vivo-100-pro-in-India-52.png)
सरकार प्रदेश के हर जिले में आवासीय संस्कृत विद्यालय खोलने पर कर रही है विचार
प्रदेश में संस्कृत शिक्षा को बढ़ावा देने और संस्कृत शिक्षा के प्रति बच्चों का रुझान बढ़े इसके लिए सरकार प्रदेश के हर जिले में आवासीय संस्कृत विद्यालय खोलने जा रही है। नये संस्कृत आवासीय स्कूल आधुनिक सुविधा सम्पन्न होंगे। कॉन्वेंट स्कूलों की तर्ज पर स्थापित होने वाले इन विद्यालयों में संस्कृतमय माहौल होगा तथा ज्यादातर स्मार्ट क्लास होंगे।
![](https://upsecondaryteachers.com/wp-content/uploads/2021/11/images-32.jpeg)
फ्री लैपटॉप : केंद्र सरकार मुफ्त में दे रही है शानदार लैपटॉप! जानिए कितना सच है सोशल मीडिया पर वायरल दावा
सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए लंबी कतारें तो लोगों के मुसीबत का सबब थी ही, लेकिन इंटरनेट के…