बच्चों और शिक्षकों की भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों पर बात करता कोई भी नहीं दिखता

देशभर के स्कूल बंद कर दिए गए, हम अब तक नहीं जानते कि स्कूल दोबारा कब से खुलेंगे.प्रशासन ने ऐसे कई नोटिस और दिशानिर्देश जारी किए, जिसमें पाठ्यक्रमों को छोटा करने और प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों को कुछ और महीनों तक घर के भीतर रहने के निर्देश दिए गए.सभी सामाजिक समूहों और वर्गों के बच्चों को वायरस के खतरे के बारे में बार-बार सतर्क किया जा रहा है और उन्हें घर के अंदर रहने की नसीहतें दी जा रही हैं.हमने भीषण गर्मी में पैदल, भीड़भाड़ वाली ट्रेनों और बसों से घर लौटते हजारों परिवारों को देखा है, जिनमें सबसे ज्यादा हृदयविदारक भूखे और निराश लोगों को देखना है.मकान मालिकों ने किराया न चुकाने पर परिवारों को बाहर का रास्ता दिखाया, नियोक्ता कर्मचारियों को काम से निकाल रहे हैं.

घरेलू कामगारों को अछूत मानकर उनके साथ दुर्व्यवहार उन्हीं लोगों द्वारा किया जा रहा है, जो अपने घर के कामकाज और बच्चों की देखरेख के लिए इन पर निर्भर हैं.छोटे निजी स्कूलों के शिक्षकों का रोजगार चला गया है और सरकारी स्कूलों में कॉन्ट्रैक्ट पर भर्ती शिक्षकों को बाहर निकाल दिए जाने का डर है. इनमें से कई शिक्षकों को महीनों से वेतन नहीं मिला है.ऐसी भी खबरें हैं कि कई पूर्व शिक्षक मनरेगा के लिए आवेदन कर रहे हैं.

भारत ने 1947 में विभाजन के दौरान भी इस तरह का ट्रॉमा, ऐसा दर्द नहीं देखा था. बच्चे पीड़ा में हैं, भ्रमित हैं और नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके आसपास क्या हो रहा है.ग्रामीण और शहरी इलाकों के बहुत गरीब परिवार के बच्चे न सिर्फ सीखने की प्रक्रियाओं से कट गए हैं बल्कि मिड डे मील से भी वंचित हो गए हैं, जो इनमें से कई के पोषण के लिए आवश्यक था.कंप्यूटर और स्मार्ट फोन तक पहुंच रखने वाले अमीर और मध्यम वर्ग के पास स्कूलों से ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण करने की व्यवस्था है लेकिन अधिकतर बच्चे विशेष रूप से सरकारी और छोटे निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के पास इस तरह का अवसर नहीं है.

इसलिए यह बहुत बड़ी विडंबना है कि आज अधिकतर चर्चा ऑनलाइन शिक्षा और इसके फायदे और नुकसानों को लेकर हैं. स्कूल बंद हो जाने से हाशिए पर मौजूद और गरीब बच्चों पर हुए प्रभाव को लेकर बहुत ही कम चर्चा हो रही है.अफसोस की बात यह है कि –

सरकार या उससे जुड़ी संस्थाएं जैसे एनसीईआरटी और एससीईआरटी भी इस बारे में बात नहीं कर रही हैं कि वे स्कूल वापसी के रास्ते को आसान बनाने और परेशानियों से जूझ रहे बच्चों के डर को दूर करने के लिए क्या कर सकती हैं.

इस पर भी बहुत कम विचार किया जा रहा है कि ग्रामीण स्कूल किस तरह लौटने वाले श्रमिकों और उनके परिवारों को अपनी प्रणाली में शामिल करेंगे.न ही ये संस्थाएं उन बच्चों की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्थिति को लेकर कोई चिंता दिखा रही है कि, जो बड़े शहरों से अपने गांवों में वापस लौटने की परेशानियों से जूझ रहे हैं या दर्दनाक यात्रा, भूख और कुपोषण का अनुभव कर चुके हैं.

यह दर्शाता है कि किस तरह कुछ समूह इस संकट के पहले, दौरान या बंद में फैसले लेने की प्रक्रिया में अदृश्य हो गए हैं. ऐसे कौन से मुद्दे हैं, जिन पर लॉकडाउन हटने के तुरंत बाद तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है?जो बच्चे स्कूल लौट रहे होंगे और जो बच्चे ग्रामीण स्कूलों में दाखिला ले रहे होंगे उन्हें सीखने की नियमितता में वापस लाने के लिए समर्थन की जरूरत होगी- मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक.स्कूल लौटने वाले और ग्रामीण स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों को मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सपोर्ट की जरूरत होगी ताकि उन्हें सीखने की प्रक्रिया में में वापस लाया जा सके.

बाल विकास क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रहीं नंदिता चौधरी याद दिलाती हैं कि कुछ बच्चों ने अपने परिवार में किसी सदस्य की बीमारी या मौत का अनुभव किया होगा, कुछ विस्थापन या इसकी संभावना के साथ रह रहे होंगे.कुछ बच्चों ने हजारों मील का सफर तय किया, उन शहरों से जहां से उन्हें निकलना पड़ा. यहां तक कि वे बच्चे भी जिन्होंने किसी तरह के प्रत्यक्ष ट्रॉमा या दुर्व्यवहार का सामना नहीं किया हो, उन पर भी महामारी का प्रभाव पड़ा होगा.

स्थिति और इसके परिणामों को पूरी तरह से समझने की क्षमता के बिना बच्चों पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से प्रभाव पड़ा है.डर और अनिश्चितता के साथ जीना सीखना और समझ से परे के दृश्यों के साथ खबरें देखने से सभी उम्र के बच्चों पर असर पड़ेगा. जैसे ही बच्चे स्कूल लौटना शुरू करेंगे, इन सभी मुद्दों पर स्कूलों को ध्यान देने की जरूरत है.यह स्कूल शिक्षकों और प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वे इन्हें समझकर बच्चों की मदद के लिए रणनीतियां बनाएं.

स्कूलों को बच्चों के लिए छोटे-छोटे समूहों में संरचित गतिविधियां शुरू करने या उनके साथ बातचीत के लिए योजना बनाने की जरूरत है ताकि वे बात कर सकें और अपनी दबी हुई भावनाओं को जाहिर कर सकें.इसके लिए शिक्षकों को पाठ्यक्रम पूरा करने या सीधे औपचारिक शिक्षा शुरू करने की जल्दबाजी से बचने और संवेदनशील बनने की जरूरत है.

(फोटो: पीटीआई)

(फोटो: पीटीआई)

मुझे याद है कि कच्छ में 2001 के भूकंप और तटीय दक्षिण भारत में 2004 में आई सुनामी के बाद शिक्षकों ने बताया था कि किस तरह बच्चों से बात करने के लिए समय और स्थान उपलब्ध कराना पड़ा था. इन शिक्षकों ने बच्चों की आंखों में डर और चिंता देखी थी.एक सहयोगी शिक्षाविद् सुबीर शुक्ला कहते हैं कि बच्चों को भावनात्मक पुनर्वास की जरूरत होगी और ऐसा करने में स्कूलों को छोटे-छोटे समूहों में बच्चों को सुनने, उनसे बात करने और उनके साथ कई तरह की गतिविधियां शुरू करने की तैयारी करनी होगी. एक उन्मुक्त असंरक्षित स्थान, जहां बच्चे खुलकर खुद को अभिव्यक्त कर सकें.

इस संकट और सीधे बच्चों के अनुभवों से निपटने के लिए बातचीत और प्रेजेंटेशन जरूरी है लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी कलात्मक और रचनात्मक अभिव्यक्ति है, जो इन चिंताओं को दूर करने में प्रभावी मानी जाती है.स्कूल के माहौल को और अधिक अनुकूल बनाने के लिए बच्चों को पेंटिंग और पोस्टर बनाने, छात्रों और शिक्षकों के द्वारा कहानियां लिखने और अन्य कलात्मक कार्यों से बच्चों को डर से बाहर निकालने में काफी मदद मिलेगी.इसी तरह गायन, खेल और सामूहिक गतिविधियों से भी मदद मिल सकती हैं. हालांकि सबसे अधिक जरूरी यह  है कि शिक्षकों को पाठ्यक्रम पूरा करने में किसी तरह की जल्दबाजी के लिए न कहा जाए.

शैक्षणिक प्रशासन को यह समझना चाहिए कि बच्चों को ट्रॉमा से निकालने के लिए उनके साथ बेहतर तरीके से बातचीत करने की जरूरत है और यह सरकारी और निजी दोनों तरह के स्कूलों के लिए होना चाहिए.

अगर इस तरह के दिशानिर्देश तैयार कर जारी किए जाएं, तो सरकारी स्कूल भी इनका पालन कर सकते हैं.ये हो सकता है कि निजी क्षेत्र के स्कूल इसका बिल्कुल संज्ञान न लें और बच्चों की मानसिक और भावनात्मक स्थिति पर ध्यान न देते हुए बच्चों को औपचारिक शिक्षा की तरफ वापस धकेल दें.इसके शुरू होने और रफ्तार पकड़ने के बाद शिक्षकों को कक्षाओं में उन्हें सीखाने की प्रक्रिया पर जोर देने की जरूरत होगी ताकि बच्चों को यह जानने में मदद मिले कि वे क्या जानते हैं.

  • साथ ही उन्हें एक ऐसे स्तर पर पहुंचने में मदद मिले, जहां वे ग्रेड विशिष्ट पाठ्यक्रम के लिए तैयार हों. भारत में इस तरह के कई अनुभव हुए हैं, विशेष रूप से पुराने वर्षों के ब्रिज पाठ्यक्रम, महिला शिक्षण केंद्र और शुरुआती चरणों में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय.
  • उन अनुभवों से सबक लेना सरकार और एनजीओ द्वारा फिर से फायदेमंद होगा और इससे शिक्षकों को बच्चों के लिए उपयुक्त लर्निंग कार्यक्रमों पर काम करने में मदद मिलेगी.
  • यह 15 से 20 स्कूलों के समूह के बीच किया जा सकता है, जहां सभी शिक्षकों को अपने अनुभवों के बारे में बात करने के लिए लाया जा सकता है और यह भी जाना जा सकता है कि वे बच्चों की स्थिति के बारे में क्या सोचते हैं
  • इसके बाद वर्कशॉप द्वारा उन्हें बच्चों से प्यार और सहानुभूति के साथ काम करने की क्षमता हासिल करने में मदद मिल सकती है.

यह स्वीकार करना जरूरी है कि सरकारी और छोटे निजी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर गरीब हैं, जिनकी किसी तरह की ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच नहीं है.

लॉकडाउन से पहले बच्चों में सीखने के स्तरों को गंभीर मुद्दे की तरह चिह्नित किया गया. बच्चों को सही तरह से पढ़ाने से बहुत फर्क पड़ता है.

इसी तरह कई बच्चों ने बहुत कठिनाइयों का सामना किया है, घरेलू हिंसा, लंबी यात्राएं और अपने घरों में बड़ों को डरा हुआ और चिंतित देखना… इसलिए जब बच्चों को इस पीड़ा, इस दर्द से बाहर निकालने की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी, तब एक सुनियोजित और सही तरह से डिजाइन की हुए लर्निंग कार्यक्रम को तैयार करना बहुत जरूरी होगा.

ये उन राज्यों के ग्रामीण स्कूलों में विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण होगा, जहां शहरों से गांव लौटी आबादी बढ़ी है. ऐसे में उच्च कक्षाओं में पढ़ रहे बच्चों के सामने ड्रॉपआउट का खतरा है.

आर्थिक तंगी, परिजनों का रोजगार जाने और रिवर्स माइग्रेशन की वजह से इन बच्चों को दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ सकती है.

किशोरियों के ऊपर न सिर्फ पानी लाने और पशुओं को चराने सहित घर की और जिम्मेदारियों का भार बढ़ेगा बल्कि किसी भी तरह की आर्थिक मंदी का मतलब होगा कि परिवारों के सामने कम वित्तीय संसाधन होंगे.

ऐसे में सबसे पहले घर में लड़की की शिक्षा प्रभावित होती है क्योंकि सरकारी स्कूलों में भी माध्यमिक शिक्षा में पैसे खर्च होते हैं.

किशोरों को भी स्कूल छोड़ना पड़ सकता है और परिवार की आर्थिक मदद के लिए कुछ काम करना पड़ सकता है.

स्कूलों के साथ काम कर रहे बड़े शैक्षणिक समुदाय यानी सरकारी और सोशल सोसाइटी संगठनों को बच्चों को उनकी शिक्षा से वंचित होने से बचाने के लिए आय जुटाने के लिए कुछ कार्यक्रम तैयार करने पड़ सकते हैं.

हमें उच्च कक्षाओं में पढ़ रहे बच्चों को स्कूल में नियमित न होने की अनुमति भी देनी होगी और उनके लिए इवनिंग प्रोग्राम शुरू करने होंगे ताकि वे पढ़ाई जारी रख सके.

गैर सरकारी क्षेत्र बड़े बच्चों के लिए इस तरह के कार्यक्रम शुरू करने में सरकारी स्कूलों की मदद कर सकता है. यह शायद सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक होगा क्योंकि अधिकतर राज्य सरकारी स्कूलों की वित्तीय हालत खस्ता है.

परोपरकारी संगठनों और दानकर्ताओं को आगे आकर इन बच्चों को छात्रवृत्ति या अन्य आर्थिक मदद देने के लिए भी आगे आना पड़ सकता है.

मौजूदा समय में हमारे पास बहुत कम डेटा और सूचना है, ऐसा कहा जा रहा है कि भूख और कुपोषण बढ़ रहा है. बच्चों को अब मिड डे मील योजनाओं की बहुत जरूरत है.

स्कूल की स्वास्थ्य पहल के साथ हमें स्कूल जाने वाले बच्चों को पूरक पोषण, हेल्थ चेकअप और मेडिकल सलाह मुहैया कराने की जरूरत है.

स्कूल प्रमुख और शिक्षकों को पंचायत, स्थानीय पीएचसी और उपकेंद्र और आईसीडीएस के साथ मिलकर समग्र स्वास्थ्य पोषण कार्यक्रम तैयार करने की जरूरत है ताकि बच्चों को भूख और कुपोषण से बचाया जा सके.

सब्जियों, अंडों, दाल, कुकिंग ऑयल की स्थानीय खरीद से मिड डे मील कार्यक्रम को बढ़ाने में मदद मिल सकती है. शायद समय आ गया है कि बच्चों के सुबह स्कूल आने पर नाश्ता उपलब्ध कराने पर भी विचार किया जाना चाहिए.

इसके लिए स्थानीय और उसी स्थान के हिसाब से योजना बनाए जाने की जरूरत है, जिसे पंचायत और स्कूलों में समूहों के तौर पर तैयार किया जा सके.

शिक्षकों और स्कूल प्रमुखों को खुद को काउंसलर्स और देखभाल करने वालों के तौर पर ढालना होगा. बीते दो से तीन दशकों में सरकारी स्कूल के शिक्षकों को तिरस्कृत और नाकारा करार दिया गया है.

हमारे समाज में स्कूल शिक्षक की प्रतिष्ठा के धीरे-धीरे घटने के कारण धारणा में यह परिवर्तन हुआ है. उन्हें सीखने की कमी के लिए दोषी ठहराया जाता है, शिक्षक इसके लिए बच्चे के परिवार और उसकी आर्थिक स्थिति को इसका प्रमुख कारण मानते हैं.

शिक्षक की अनुपस्थिति पर शोध अध्ययन, रोजगार सुरक्षित रखने के लिए संविदा शिक्षकों को तरजीह देना, अधिक से अधिक निजीकरण ने शिक्षकों के साथ-साथ उनके सामाजिक दृष्टिकोण में हमारे विश्वास को लगातार क्षीण किया है.

इस नैरेटिव का प्रभावी ढंग से विरोध करने की जरूरत है.

एस. गिरिधर की हालिया किताब, जिसमें उत्कृष्ट शिक्षकों की केस स्टडीज है, उससे पता चलता है कि ऐसे हजारों शिक्षक हैं, जो न सिर्फ कड़ी मेहनत करते हैं बल्कि यह विश्वास भी करते हैं कि सभी बच्चे सीख सकते हैं.

गिरिधिर किताब में कहते हैं,

अगर मैं इन कक्षाओं में देखी गई मूल मान्यताओं और शैक्षणिक गतिविधियों को संक्षेप में बताऊं, तो सबसे महत्वपूर्ण शिक्षकों का विश्वास होगा कि ‘हर बच्चा सीख सकता है और यह जिम्मेदारी हमारी है.’

ये शिक्षक हर बच्चे के लिए सीखने के अनुभव को दिलचस्प बनाने की कोशिश करते हैं और कक्षा में मौजूदा ज्ञान का सम्मान करते हैं और इसका इस्तेमाल नए ज्ञान के निर्माण में करते हैं. ये शिक्षक बच्चों को उनके आसपास की दुनिया की अवधारणाओं के साथ जोड़ने में मदद करते हैं.

शिक्षकों पर भरोसा करना, उन्हें स्कूल और कक्षा में अधिक स्वायत्तता देना और सबसे बढ़कर, उनकी समस्याओं को सुनना और समझना उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी है.

हम सभी जानते हैं कि शिक्षक का विश्वास शायद प्रभावी शिक्षण माहौल के लिए सबसे मजबूत घटक है. हम यह भी जानते हैं कि अधिकतर इन-सर्विस टीचर एजुकेशन प्रोग्राम विशेष विषय ज्ञान पर केंद्रित है, जिसे आमतौर पर हार्ड स्पॉट कहा जाता है.

(फाइल फोटो: पीटीआई)

(फाइल फोटो: पीटीआई)

यकीनन शिक्षक, जो हमारे समाज का भी हिस्सा हैं, उनमें दृढ़ विश्वास और पूर्वाग्रह हैं. हमें शिक्षकों की समस्याओं के साथ इनसे निपटने के लिए प्रयास करने की जरूरत है.

यह लॉकडाउन न सिर्फ बच्चों के लिए पीड़ादायी रहा बल्कि शिक्षक भी इससे प्रभावित हुए हैं. इनमें से कई को अपने परिवार और समुदाय की समस्याओं का सामना करना पड़ा. ये उन्हें और उनके परिवार को संक्रमित कर रहे वायरस से भी डरे हो सकते हैं.

स्कूलों के दोबारा खुलने से पहले क्लस्टर और ब्लॉक स्तर पर समूहों में शिक्षकों को एक साथ लाना जरूरी है और उन्हें अपने डर और चिंताओं को व्यक्त करने के लिए जगह देना बहुत आवश्यक होगा.

जब वे भावनात्मक रूप से तैयार हों, तब उन्हें सहानुभूति और समझ के साथ बच्चों तक पहुंचने और काम करने के लिए कौशल और जानकारी देने की आवश्यकता होगी.

बच्चों के साथ मिलकर काम करने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण और ठोस रणनीति की जरूरत है. इस काम को स्कूल खुलने से पहले करने की जरूरत है ताकि जब बच्चे स्कूल पहुंचे, तब स्कूल प्रमुख और शिक्षक तैयार हों.

बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारी सरकारें केंद्र और राज्य सरकारों के पास पर्याप्त योजनाएं हैं कि वे किस तरह स्कूलों को दोबारा खोलेंगे और उन्हें ऐसा करने की क्या करने की जरूरत है.

कुछ राज्य सरकार के अधिकारियों का कहना है कि वे दाखिले में बढ़ोतरी को लेकर तैयारी कर रहे हैं, कुछ पाठ्यक्रमों को छोटा करने पर ध्यान केंद्रित दिख रहे हैं और कुछ परीक्षाओं को लेकर चिंतित हैं.

मैंने उनमें से किसी को भी बच्चों और शिक्षकों के भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक जरूरतों के बारे में बात करते नहीं सुना और न ही मैंने इसके बारे में सुना या पढ़ा कि स्कूलों के दोबारा खुलने से पहले किस तरह की विस्तृत योजना की जरूरत होगी.

शायद, इस समय नौकरशाहों और नेताओं के पास इसके बारे में सोचने के लिए समय नहीं है. आवश्यक तैयारी किए बिना स्कूलों को दोबारा खोलने का फैसला विनाशकारी हो सकता है.

समग्र और सार्थक शिक्षा लंबे समय से उपेक्षित है. पाठ्यक्रम, परीक्षा और इससे जुड़े हुए मुद्दे ही रडार पर रहे हैं. बच्चों और शिक्षकों की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और हर तरह से भलाई चिंता का विषय नही है.

यह बाल विकास और सार्थक शिक्षा से जुड़े मूलभूत मुद्दों से निपटने के लिए अच्छा समय हो सकता है. एक ऐसी शैक्षणिक प्रक्रिया जो साहस और आत्मविश्वास के साथ बच्चों को बाहरी दुनिया के साथ बातचीत करने के लिए सशक्त कर सकती है.

(लेखक नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन की पूर्व प्रोफेसर और शोधार्थी हैं.)

(नंदिता चौधरी, कामेश्वरी जंध्याला और सुबीर शुक्ला के सहयोग के साथ.) (मूल अंग्रेज़ी लेख से श्रद्धा उपाध्याय द्वारा अनूदित.)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *