उच्चतम न्यायालय (भारत संघ बनाम के. कृष्णनन, ए.आई.आर. 1992 एस.सी. 1898) ने कहा है कि जब कोई सरकारी सेवक दण्ड भुगत रहा हो तो उसे इसी कारण से प्रोन्नत न करना युक्तिसंगत है। एल. रजैया बनाम आई.जी. रजिस्ट्रेशन एण्ड स्टाम्प, हैदराबाद (ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 2199) के मामले में, श्री रजैया कनिष्ठ सहायक के पद पर, सन् 1978 मे, नियुक्त किये गये थे। उनके विरुद्ध की गयी अनुशासनिक जांच में दिनांक 1.3.89 को, उनकी वेतनवृद्धियाँ पाँच वर्ष तक रोकने का, दण्डादेश किया गया था। उस समय श्री रजैया को दिया गया दण्ड प्रभावी था अत: उन्हें पदोन्नति के लिए अनर्ह होना पाया गया। उच्चतम न्यायालय ने उसे उचित ठहराते हुए कहा कि जब श्री रजैया से कनिष्ठ सेवकों की प्रोन्नति की गयी उस समय दण्डादेश प्रभावी था, अत: वह पदोन्नति पर विचार के लिए अनर्ह था। इसी कारण से उससे कनिष्ठ सेवकों को ज्येष्ठ सहायक के पद पर पदोन्नत किया गया। अत: श्री रजैया कोई शिकायत नहीं कर सकते। उक्त दण्डादेश दिनांक 28.2.94 तक प्रभावी था। अतएव श्री रजैया
पदोन्नति में मुहर बन्द लिफाफे की प्रक्रिया भारत संघ बनाम के.बी. जानकी रमन (ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 2010) के मामले में, विभागीय प्रोन्नति समिति द्वारा प्रोन्नति के मामलों में “मुहरबन्द लिफाफा” की प्रक्रिया अपनाने के विषय में, उच्चतम न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित प्रश्न उत्पन्न हुये थे:-
(1) सरकारी सेवक के विरुद्ध किस तिथि से अनुशासनिक/आपराधिक कार्यवाही लम्बित होनी मानी जाएगी
(2) जब अनुशासनिक/आपराधिक कार्यवाही में सेवक को दोषी पाया जाये तथा पदच्युति से भिन्न कोई दण्ड दिया जाये तब उसकी प्रोन्नति पर किस प्रकार विचार किया जायेगा
(3) जब सेवक को, पूर्णत: या अंशत:, आरोप मुक्त कर दिया जाये तो वह किन लाभों को, किस तिथि से, पाने का हकदार होगा
प्रश्न-1 पर निर्णय- सरकारी सेवक की प्रोन्नति पर विचार करते मुहरबन्द लिफाफा की प्रक्रिया सिर्फ तभी अपनायी जायेगी जब वह सेवक निलम्बित हो अथवा उसे आरोप-पत्र निर्गत कर दिया गया हो।
प्रश्न-2 पर निर्णय- अनुशासनिक कार्यवाही में दुराचरण के लिए दोषी पाये गये सरकारी सेवक का मामला, कलंक रहित सरकारी सेवक के मामले के समान व्यवहृत नहीं किया जाएगा, अपितु दोषसिद्ध सेवक का मामला भिन्न ढंग से व्यवहृत किया जाएगा।
प्रश्न-3 पर निर्णय- जब आरोपित सेवक को, पूर्णत:, दोष मुक्त कर दिया गया हो, उस पर कोई कलंक न लगा हो, यहां तक कि उसे सेंसर का भी दण्ड न दिया गया हो, तब उसे उसी तिथि से प्रोन्नति, एवं उच्च पद का वेतनमान आदि, लाभ दिया जाएगा जिस तिथि को, यदि अनुशासनिक आपराधिक कार्यवाही लम्बित न रही होती तो, सामान्य दशा में उसे पदोन्नत किया गया होता। परन्तु कुछ मामले ऐसे भी हो सकते हैं जिनमें सक्षम प्राधिकारी को यह विनिश्चय करना पड़ सकता है कि क्या वह सेवक बीच की अवधि का वेतन पाने योग्य है यदि हाँ, तो किस सीमा तक
ऐसा मामला भी हो सकता है जहां आरोपित सेवक के कृत्यों के परिणामस्वरूप साक्ष्य की अनुपलब्धता के कारण अथवा संदेह लाभ के कारण उसे दोषमुक्त किया गया हो अथवा उस सेवक ने जानबूझकर अनुशासनिक/आपराधिक कार्रवाई को विलम्बित किया हो। इन परिस्थितियों पर विचार करके सक्षम प्राधिकारी द्वारा बीच की अवधि का वेतन देने के विषय में विनिश्चय किया जाना चाहिए।
मुहरबन्द लिफाफा की प्रक्रिया अपनाने के संदभर् में एक महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह है कि आरोप-पत्र कब “निर्गत” हुआ माना जाएगा इसका विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम एच.सी. खुराना (1993 (2) एस.एल.आर. 509 (उच्चतम न्यायालय)।
उच्चतम न्यायालय (दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम एच. सी. खुराना, 1993 (2) एस.एल.आर. 509) ने अवधारणा किया कि अनुशासनिक कार्यवाही आरम्भ करने का निर्णय लेने के संदभर् में आरोप-पत्र निर्गत करने का तात्पर्य यह है कि आरोप-पत्र विरचित करके इसे आरोपित सेवक के पास भेजने की आवश्यक कार्रवाई कर ली गयी है। आरोप-पत्र “निर्गत” होने में आरोप-पत्र का तामिल होना सम्मिलित नहीं है।
भारत संघ बनाम केवल कुमार (1993 (2) एस.एल.आर. 554) के मामले में यद्यपि आरोप-पत्र निर्गत नहीं हुआ था फिर भी विभागीय प्रोन्नति समिति द्वारा अपनायी गयी मुहरबन्द लिफाफा की प्रक्रिया को उचित माना गया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब सक्षम प्राधिकारी किसी सरकारी सेवक के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही आरम्भ करने का निर्णय लेता है अथवा उसके विरुद्ध अभियोजन संस्थित करने की कार्रवाई करता है तब उस सेवक को तब तक पदोन्नति नहीं दी जा सकती है जब तक कि वह दोषमुक्त न हो जाए, भले ही विभागीय प्रोन्नति समिति ने उस सेवक की प्रोन्नति की संस्तुति, अन्यथा उपयुक्त पाते हुए, किया हो।
भारत संघ बनाम डा. श्रीमती सुधा सल्हन (जे.टी. 1998 (1) एस.सी. 622) के मामले में डा. सुधा की प्रोन्नति पर विचार करने हेतु दिनांक 8.3.89 को विभागीय प्रोन्नति समिति की बैठक हुई एवं उनका मामला मुहरबन्द लिफाफा में रख लिया गया। उसके उपरान्त दिनांक 16.4.91 को डा. सुधा को निलम्बित किया गया एवं दिनांक 8.5.91 को उन्हें आरोप-पत्र दिया गया। डा. सुधा ने केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण में याचिका स्वीकार कर लिया, जिसके विरुद्ध भारत संघ ने उच्चतम न्यायालय में अपील किया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह प्रकरण के.बी. जानकी रमन में दिए गए निर्णय से आच्छादित है। जिस तिथि को विभागीय प्रोन्नति समिति किसी व्यक्ति को उच्च पद पर प्रोन्नति करने के बारे में विचार करे, यदि उस तिथि को वह व्यक्ति न तो निलम्बित हो, न ही उसके विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही आरम्भ की गयी हो, तो उसके मामले में मुहरबन्द लिफाफा की प्रक्रिया नहीं अपनायी जा सकती है। विभागीय प्रोन्नति समिति की संस्तुति को सिर्फ तभी मुहरबन्द लिफाफा में रखा जा सकता है जब प्रोन्नति के लिए उसके नाम पर विचार करने की तिथि को अनुशासनिक कार्यवाही प्रारम्भ की जा चुकी है या लम्बित हो। उच्चतम न्यायालय ने अधिकरण के निर्णय को उचित माना एवं भारत संघ की अपील खारिज कर दिया।
बैंक आफ इंडिया बनाम देगाल सूर्यनारायण (बैंक आफ इंडिया बनाम देगाल सूर्यनारायण, (1999) 5 एस.सी.सी. 762) के मामले में श्री देगाल सूर्यनारायण (बैंक आफ इंडिया बनाम देगाल सूर्यनारायण, (1999) 5 एस.सी.सी. 762) की प्रोन्नति वर्ष 1981-82 में होनी थी किन्तु केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा दुर्विनियोग के अभियोग का अन्वेषण कर रहे होने के आधार पर प्रोन्नत के लिए, उसके साक्षात्कार का परिणाम रोक लिया गया।
उच्चतम न्यायालय (बैंक आफ इंडिया बनाम देगाल सूर्यनारायण, (1999) 5 एस.सी.सी. 762) ने कहा कि सन् 1986-87 में जब श्री देगाल सूर्य नारायण की प्रोन्नति होनी थी तब उसके विरुद्ध कोई विभागीय जांच लम्बित नहीं थी। सन् 1991 के अन्त में आरम्भ की गयी अनुशासनिक जांच के कारण सन् 1986-87 में देय प्रोन्नति के संबंध में मुहरबन्द लिफाफा की प्रक्रिया नहीं अपनायी जा सकती थी और न ही प्रोन्नति रोकी जा सकती थी। उसे सन् 1986 से प्रोन्नति का लाभ देने से वंचित नहीं किया जा सकता है।
उच्चतम न्यायालय (बैंक आफ इंडिया बनाम देगाल सूर्यनारायण, (1999) 5 एस.सी.सी. 762; आन्ध्र प्रदेश राज्य बनाम एन. राधाकिशन, (1998) 4 एस.सी.सी. 154) ने कहा है कि यदि विभागीय प्रोन्नति समिति ने किसी कार्मिक के प्रोन्नति के मामले पर विचार कर लिया हो किन्तु उसके विरुद्ध अनुशासनिक जाँच लम्बित होने के कारण समिति की संस्तुतियां मुहरबन्द लिफाफा में रख ली गयी हो जब उस अनुशासनिक जाँच में उसके पक्ष में निर्णय होने पर वह व्यक्ति समिति की संस्तुतियों का लाभ पाने का हकदार है, भले ही उस तिथि तक उसके विरुद्ध कोई अन्य अनुशासनिक जाँच लम्बित हो गयी हो।
दिल्ली जल बोर्ड बनाम महिन्दर सिंह (2000)7 एस.सी.सी. 210) के मामले मे, उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अर्ह हो एवं पात्रता क्षेत्र में आता हो तो विभागीय प्रोन्नति समिति द्वारा उसकी प्रोन्नति के मामले पर विचार किये जाने का उसे संविधान के अनुच्छेद-16 के अधीन मूल अधिकार प्राप्त होता है। मुहरबन्द लिफाफा की प्रक्रिया उसकी प्रोन्नति को लम्बित अनुशासनिक जाँच के परिणाम तक अस्थगित रखने की अनुमति देती है।