अनिवार्य सेवानिवृति क्यों
- प्रशासनिक कार्यतंत्र को मजबूत बनाने के लिए
- उत्तरदायी और कुशल प्रशासन विकसित करने के लिए
- सरकारी कार्यों में कार्यकुशलता ,किफायत और तेजी लाना
- लोकहित में जब भी अनिवार्य सेवानिवृति की बात होती है तो दो नियम देखा जाता है:-
- FR 56(J)
- CCS(pension) Rule 1972 का Rule 48(1)B
अनिवार्य सेवानिवृत करने का अधिकार किसे हैं?
FR 56(J) और (l) और CCS(pension) Rule 1972 का Rule 48(1) B के तहत लोकहित में यदि आवश्यक हो, अनिवार्य सेवानिवृत करने का समुचित प्राधिकार को आत्यन्तिक अधिकार (Absolute Right) है।
FR 56(J)
समुचित प्राधिकार को, यदि उसकी यह राय हो कि ऐसा करना लोकहित में है, इस बात का अत्यंतिक अधिकार होगा कि वह किसी भी सरकारी सेवक की, 3 माह से अन्यून लिखित सूचना देकर या ऐसी सूचना के बजाय 3 माह का वेतन और भत्ता देकर:-
- यदि वह ‘समूह क ‘अथवा ‘समूह ख ‘सेवा में अथवा अधिष्ठायी, स्थायीवत या अस्थायी हैसियत में पद पर हो और सरकारी सेवा में 35 वर्ष की आयु पूरी कर देने से पूर्व प्रविष्ट हुआ हो,तो 50 वर्ष की आयु पूरी कर लेने के पश्चात
- किसी अन्य मामले में, 55 वर्ष की आयु पूरा करने के पश्चात उसे अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी जा सकती है।
FR 56(I)
FR 56(J) में किसी बात के होते हुए भी,समुचित प्राधिकार को, यदि उसकी राय हो कि ऐसा करना लोकहित में है, इस बात का आत्यंतिक अधिकार होगा कि वह ‘समूह ग’ सेवा या उस पद के सरकारी सेवक को, जो किसी पेंशन नियमों के द्वारा शासित नहीं है, जब वह 30 वर्ष की सेवा पूरी कर चुके उसे 3 माह से अन्यून लिखित सूचना देकर या ऐसी सूचना के बदले में 3 माह का वेतन और भत्ता देकर,सेवा से निवृत कर दे।
CCS(pension) Rule ,1972 Rule 48(1) B
सरकारी सेवक के 30 वर्ष की अर्हक सेवा पूरी कर लेने के पश्चात किसी भी समय, नियोक्ता प्राधिकारी द्वारा उसे लोकहित में सेवानिवृत्त करना अपेक्षित हो सकता है तथा ऐसी सेवानिवृति के मामले में वह सरकारी सेवक सेवानिवृति पेंशन का हकदार होगा, बशर्ते कि नियोक्ता प्राधिकारी सरकारी सेवक को; उस तारीख से कम से कम तीन माह पूर्व जब उसे लोकहित में सेवानिवृत्त किया जाना अपेक्षित हो, लिखित में नोटिस भी दे या ऐसे नोटिस के स्थान पर 3 माह का वेतन और भत्ते प्रदान करे।
रजिस्टर
- ऐसे सरकारी सेवक जिनकी सेवा 30 वर्ष पूरी हो गई है या जो 50 या 55 वर्ष के आयु के हो गए है, का विवरण एक रजिस्टर पर रखा जाता है।
- हर 3 महीने में वरिष्ठ अधिकारी द्वारा इस रजिस्टर की समीक्षा की जाती है।
इसकी लिए एक समय सीमा भी निर्धारित की गई है:-
तिमाही जिसकी समीक्षा की जानी है | समीक्षा की समय सीमा |
जनवरी से मार्च | जुलाई से सिंतबर में |
अप्रैल से जून | अक्टूबर से दिसंबर में |
जुलाई से सिंतबर | जनवरी से मार्च में |
अक्टूबर से दिसंबर | अप्रैल से जून में |
समीक्षा समिति
मौलिक नियम (FR) 56(J) और सेंट्रल सिविल सर्विसेज (CCS) (पेंशन) रूल्स 1972 के तहत ग्रुप ‘ए’ के कर्मचारियों के कामकाज की समय-समय पर समीक्षा करने का प्रावधान किया गया है।
श्रेणी | समीक्षा समिति का अध्यक्ष |
Group A के अधिकारियों के मामले में | संबंधित CCA का सचिव अध्यक्ष होगा। जहां पर CBDT, CBEC, रेलवे बोर्ड ,दूरसंचार आयोग आदि जैसे बोर्ड है, वहां समीक्षा समिति का अध्यक्ष ,उस बोर्ड का अध्यक्ष होगा। |
Group B(राजपत्रित) के अधिकारियों के मामले में | अपर सचिव/ संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी |
अराजपत्रित अधिकारियों के मामले में | संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी, केन्द्रकृत संवर्ग से भिन्न संवर्गो में अराजपत्रित कर्मचारी के मामले में विभागाध्यक्ष/ संगठन का अध्यक्ष |
- समीक्षा समिति इसके लिए अधिकारी/कर्मी के सेवा अभिलेख का व्यापक समीक्षा करेगी।
- सेवा अभिलेख में न सिर्फ ACR शामिल होंगे, बल्कि सरकारी सेवक की व्यक्तिक फ़ाइल भी होगा।
CCS (pension) Rule 1972 के तहत स्क्रीनिंग कमेटी के गठन और उनके द्वारा की जाने वाली समीक्षा के मानकों का भी ब्योरा दिया गया है।
कमेटी अपनी सिफारिशें मूलतः दो आधार पर तय कर सकती है।
- उन सरकारी कर्मचारियों को रिटायर करने की सिफारिश की जा सकती है जिनकी ईमानदारी या सत्यनिष्ठा शक के दायरे में हो।
- ऐसे कर्मचारी जो फिटनेस अथवा योग्यता के आधार पर उस पद के अनुकूल न हों, जिस पर वे आसीन हैं।
उपर्युक्त में से कोई भी आधार सही पाए जाने पर कार्रवाई की जाती है।
सुप्रीम कोर्ट ने FR56(j) की वैधता को सही माना।
भारत संघ v कर्नल जे. एन. सिन्हा के मामले सुप्रीम कोर्ट ने FR56(j) की वैधता को सही माना।
- सुप्रीम कोर्ट नियम एफआर 56 (j) की वैधता को न केवल सही ठहरा चुका है बल्कि उसके मुताबिक किसी कर्मचारी को इस नियम के प्रावधान के दायरे में आने वाले सरकारी कर्मचारियों को सेवानिवृत करने का नोटिस देने से पहले कारण बताओ नोटिस देने की भी आवश्यकता नहीं है।
- लेकिन कोर्ट ने यह भी चेताया है कि किसी कर्मचारी के सेवानिवृत्त के संबंध में फैसला न तो मनमाने तरीके से और न ही उसकी मुख्य जिम्मेदारी से इतर आधार पर होने चाहिए।
उत्तर प्रदेश सरकार और अन्य बनाम विजय कुमार जैन 2002 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि अगर सरकारी कर्मचारी का आचरण सार्वजनिक हित में अनुचित हो जाता है अथवा लोक सेवा दक्षता में व्यवधान डालता है तो सरकार के पास लोकहित में ऐसे किसी सरकारी कर्मचारी को अनिवार्य सेवानिवृत्ति का आत्यंतिक अधिकार है।
गुजरात राज्य v उमेद भाई (2001) के केस में माननीय न्यायालय ने माना कि अनिवार्य सेवानिवृति से संबंधित कानून अब निश्चित सिद्धान्तों के रूप में स्थापित हो चुका है। जिसका सारांश है:-
- जब किसी लोक सेवक की सेवा सामान्य प्रशासन के लिए उपयोगी नहीं होती है, तो अधिकारी को अनिवार्य रूप से सार्वजनिक हित में सेवानिवृत्त किया जा सकता है।
- अनिवार्य सेवानिवृत्त के आदेश को संविधान के अनुच्छेद 311 के तहत दंड के रूप में नहीं माना जाना चाहिए।
- अनिवार्य सेवानिवृत्त को दंडात्मक उपाय के रूप में लागू नहीं किया जाएगा।
- गोपनीय रिकॉर्ड में की गई किसी भी प्रतिकूल टिप्पणी/असंप्रेषित प्रविष्टियों का संज्ञान किया जाएगा और ऐसे आदेश पारित करते समय उस पर पूर्ण रूप से ध्यान दिया जाएगा।
- विभागीय जांच से बचने के लिए शॉर्टकट के रूप में अनिवार्य सेवानिवृति का आदेश पारित नहीं किया जाएगा जब ऐसी जांच प्रक्रिया ज्यादा वांछनीय हो।
- गोपनीय रिकॉर्ड में की गई किसी भी प्रतिकूल टिप्पणी के बाद भी यदि अधिकारी को पदोनत्ति दी जाती है, तो यह तथ्य अधिकारी के पक्ष में है।
- सरकार या समीक्षा समिति, (जैसा भी मामला हो) मामले में निर्णय लेने से पहले सेवा के पूरे रिकॉर्ड पर विचार करना होगा।
सेवानिवृत होने वाले के पास क्या रास्ता है
- समय पूर्व सेवानिवृत होने वाले सेवक आदेश के विरुद्ध नोटिस प्राप्त होने के 3 सप्ताह के अंदर अभ्यावेदन समिति (Representation committee) के पास अपना आवेदन कर सकता है।
- आवेदन प्राप्त होने पर 2 सप्ताह के अंदर Representation committee इसकी जांच करेगी, और अपना सिफारिश देगी।
- 2 सप्ताह के अंदर Representation committee के सिफारिश के आलोक में सरकार इसपर निर्णय लेगी।
संवैधानिक संरक्षण
अधिकारी अपना कार्य पूर्ण निष्ठा, कर्तव्य, निर्भिकता व ईमानदारी से कर सकें, इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 311 में सरकारी सेवकों को कुछ रक्षोपाय और संरक्षण प्रदान किया गया है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि ये संरक्षण केवल निम्नलिखित सेवकों को ही उपलब्ध हैं-
- संघ या राज्य की सिविल सेवा के सदस्य
- अखिल भारतीय सेवा के सदस्य
- वे व्यक्ति जो संघ या राज्य के अधीन कोई सिविल पद धारण करते हैं।
- Note:रक्षा सेवाओं में जो सिविल कर्मचारी होते हैं उन्हें यह अधिकार नहीं मिलते। सशस्त्र बलों के लिए विशेष अधिनियम हैं, जैसे थल सेना अधिनियम, नौसेना अधिनियम और वायु सेना अधिनियम।
अनुच्छेद 311 में दो रक्षोपायों का वर्णन है-
अनुच्छेद 311 का खंड (1) यह कहता है कि जिस व्यक्ति को अनुच्छेद 311 का संरक्षण प्राप्त है उसे ऐसे प्राधिकारों द्वारा पदच्युत नहीं किया जाएगा या पद से नहीं हटाया जाएगा जो उसकी नियुक्ति करने वाले अधिकारी के अधीनस्थ हो।
ऐसे व्यक्ति को बिना जांच के पदच्युत नहीं किया जाएगा या पद से हटाया नहीं जाएगा या पद से अवनत नहीं किया जाएगा।
जाँच में निम्न बातों का ध्यान दिया जाता है-
- उसके विरुद्ध क्या आरोप है यह सूचित किया जाएगा और
- सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर दिया जाएगा।
42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के पूर्व सुनवाई का अवसर दो बार दिया जाता था।
- उसके विरुद्ध आरोप की बाबत और
- जब शास्ति अधिरोपित करने का प्रस्ताव होता था।
अब 42वें संशोधन के पश्चात् नियम यह है कि जाँच के दौरान जो साक्ष्य पेश किया जाता है, उसके आधार पर सजा दी जा सकती है। वहीं दूसरी सुनवाई का अवसर देना विधि की अनिवार्यता नहीं रह गयी है। विधि को परिवर्तित कर दिया गया है।
Note: सेवकों का निलंबन न तो पदच्युति है न पद से हटाया जाना। जो कर्मचारी निलंबित किया गया है वह अनु- 311 के संरक्षण का दावा नहीं कर सकता।
क्या समय पूर्व सेवानिवृति दण्ड है
- समय पूर्व सेवानिवृत्त लोकहित में की जाती है।
- यदि सेवानिवृत्त करने का निश्चय सद्भावनापूर्वक लिया गया है तब न्यायालय में यह आक्षेप नहीं किया जा सकता कि निर्णय सही नहीं है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अनिवार्य सेवानिवृत्त को दंड नहीं माना जाता है।
- जबकि पदच्युति का आदेश दंड देता है क्योंकि इसके पश्चात् पेंशन नहीं मिलती।
- पद से हटाने का आदेश भी दंडस्वरूप होता है। इसके भी परिणाम वही हैं बस अंतर यह है कि जिस सेवक को पदच्युत किया जाता है वह पुनः नियुक्ति के लिए पात्र नहीं होता जो पद से हटाया जाता है वह नियुक्त किया जा सकता है।
- जब व्यक्ति अनिवार्य सेवानिवृत्त किया जाता है वह पेंशन फायदों का हकदार होता है। यह दंडस्वरूप नहीं होती।
अनुच्छेद 311(2) के अंतर्गत स्थायी और अस्थायी दोनों सरकारी कर्मचारियों को संरक्षण देने का प्रावधान किया गया है। यह सरकारी सेवक को एक मूल्यवान अधिकार देता है। उसे जांच के पश्चात् ही पदच्युत किया जा सकता है, पद से हटाया जा सकता है या पंक्ति से अवनत किया जा सकता है।
Rule 37 of M.P.Civil Services (Pension) Rules, 1976
नियम 37.- अनिवार्य सेवा निवृत्ति पेंशन (Compulsory Retirement Pension) – (1) शास्ति के रूप में सेवा से अनिवार्य सेवा-निवृत्त शासकीय सेवक को, वैसी शास्ति अधिरोपित करने वाले सक्षम प्राधिकारी द्वारा पेंशन अथवा उपदान अथवा दोनों अनिवार्य सेवानिवृत्ति दिनांक की अनुज्ञेय सम्पूर्ण पेंशन अथवा उपदान की वह राशि जो दो-तिहाई से कम नहीं हो स्वीकार हो की जावेगी।
(2) जब कभी किसी शासकीय सेवक के प्रकरण में राज्यपाल द्वारा (चाहे मूल, अपीलीय अथवा पुनर्विलोकन की शक्तियों का प्रयोग करते हए) इन नियमों के अधीन स्वीकार्य पूर्ण क्षतिपूरक पेंशन से कम पेंशन देने का आदेश पारित किया जाय तो ऐसा आदेश पारित करने के पूर्व लोक सेवा आयोग से परामर्श किया जायेगा।
स्पष्टीकरण – इन नियमों में “पेंशन” में “उपदान” (ग्रेच्युटी) शामिल है।
[(3) उपनियम (1) अथवा उपनियम (2), जैसा भी मामला हो, के अधीन स्वीकृत अथवा पुरस्कृत पेंशन, न्यूनतम पेंशन, जैसा कि “शासन द्वारा समय-समय पर निर्धारित की जावे,” [वित्त विभाग अधिसूचना क्र. बी- 25/9/96/PWC/IV, दिनांक 18-6-96 द्वारा स्थापित तथा दिनांक 1-1-86 से लागू।] से कम नहीं होगी। जो 1.1.06 से रु. 3025/- प्रतिमाह है।]