द हिन्दू समाचार पत्र के अनुसार तमिलनाडु के कई हिस्सों में स्कूली बच्चों के बीच जातीय गौरव के खुले प्रदर्शन का नतीजा अक्सर खूनखराबे के रूप में सामने आया है। और, नांगुनेरी में अनुसूचित जाति के भाई-बहन पर दबंग समुदाय के उनके स्कूली साथियों द्वारा कातिलाना हमले की पृष्ठभूमि में गठित, जस्टिस के. चंद्रू कमिटी ने इसका हल तलाशने की कोशिश की है। अपनी विस्तृत रिपोर्ट में, उसने राज्य सरकार से सिफारिश की है कि छात्रों के रंगीन रिस्टबैंड, अंगूठियां, या तिलक धारण करने पर रोक लगायी जाए, क्योंकि ये जातीय पहचान का काम करते हैं। छात्रों को ऐसी साइकिलों के इस्तेमाल से परहेज करना चाहिए जिन पर जातीय संदर्भ वाला कोई चिह्न पेंट किया गया हो। इसके अलावा, स्कूलों के नाम में कोई जातीय पदवी नहीं होनी चाहिए। उसने विद्यार्थियों की जाति गोपनीय रखने का भी सुझाव दिया है। ऐसी सिफारिशें नयी नहीं हैं। एक चौथाई सदी पहले, दक्षिणी जिलों में जातीय टकरावों के बाद, सरकार ने परिवहन निगमों और जिलों को दिये गये जाति, समुदाय और नेताओं के नाम हटा दिये थे। उससे काफी पहले, उसने सड़क पर लगे साइनबोर्डों से जातीय उपनाम हटाने का प्रयोग किया था। कुछ वर्ष पूर्व, पाठ्यपुस्तकों से लोकप्रिय नेताओं के जातीय उपनाम हटा दिये गये थे।
कमेटी ने यह बिल्कुल सही सिफारिश की है कि सामाजिक मुद्दों से जुड़ी पाठ्यचर्या को जांचने और बदलाव के सुझाव देने के लिए, और सामाजिक न्याय, समानता, और भेदभाव न करने पर आधारित विषयों के समावेश पर जोर देने के लिए, सरकार एक सामाजिक न्याय निगरानी कमेटी नियुक्त करे जिसमें शिक्षाविदों (एकेडमीशियनों) और सामाजिक कार्यकर्ताओं को शामिल किया जाए। समावेशन के प्रति उन्मुखता सुनिश्चित करने के लिए, बी.एड. और डिप्लोमा इन एलीमेंट्री एजुकेशन के पाठ्यक्रमों को संशोधित करने का सुझाव स्वागतयोग्य है। लेकिन अच्छा होगा कि सरकार हर स्कूल में मध्याह्न भोजन रसोईघरों को खत्म करने की प्रतिगामी सिफारिश को दरकिनार कर दे। कमेटी के सुझाव के अनुरूप हर ब्लॉक/पंचायत में एक केंद्रीकृत रसोईघर से रसोइयों की जातीय पहचान पर पर्दा डालने में शायद मदद मिल सकती है, लेकिन यह प्रचलित भेदभाव का समाधान नहीं करता। केंद्रीय रसोईघर से भोजन के वितरण में व्यावहारिक कठिनाइयां तो हैं ही, बच्चे भी गर्म और ताजा भोजन से वंचित हो जायेंगे। एक वर्दीधारी सोशल जस्टिस स्टूडेंट्स फोर्स – जो “केंद्र सरकार से स्वतंत्र रूप से काम करेगा” और नियमित कवायद और कसरत आयोजित करेगा – की स्थापना के सुझाव को भी सावधानी से देखने की जरूरत है। मौजूदा एनसीसी, स्काउट व गाइड, और एनएसएस व्यवस्था छात्रों को इस तरह का ‘स्पेस’ मुहैया कराने के लिए बहुत पर्याप्त है। सरकार को उस भेदभाव से निपटने को लेकर जागरूक होना होगा जो बच्चों के पर्यावासों में शुरू होता है। ये पर्यावास, पीने के पानी के पाइपों से लेकर बस स्टॉपों तक, जातीय पहचान कराने वाले रंगों से भरे हुए हैं। जातीय वोट बैंक से राजनीतिक दलों की चुनावी कामयाबी ने ऐसे और ज्यादा संगठनों को जन्म दिया है जिनके नेता आसानी से प्रभावित हो सकने वाले किशोरों को राजनीतिक पूंजी की तरह इस्तेमाल करते हैं। चिंताजनक है कि ऐसे संगठनों को मुख्यधारा के दलों द्वारा रिझाया जाता है। जब तक ग्रामीण स्तर पर बदलाव नहीं होता और राजनीतिक इच्छाशक्ति जातीय पहलुओं से परे नहीं जाती, शैक्षणिक परिसरों में स्कूली छात्रों के बीच मेलजोल कायम करने के प्रयास शायद सार्थक साबित नहीं होंगे।