राष्ट्र हर वर्ष 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के अवसर पर डॉ. राधाकृष्णन को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। यह अवसर हमें 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिए अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की दिशा में देश के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों और चिंताओं पर विचार करने के लिए भी प्रेरित करता है। इन चुनौतियों में उपयुक्त और प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को उनकी रुचि के क्षेत्र में उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए पहुंच और अवसर की समानता का प्रावधान करना शामिल है। इस संदर्भ में डॉ. राधाकृष्णन का यह वक्तव्य स्मरणीय है: ‘‘शिक्षा एक सार्वभौमिक अधिकार है और यह किसी का विशेषाधिकार नहीं है।’’ शिक्षा के क्षेत्र में हमारी उपलब्धियां इसी मानदंड पर परखी जानी चाहिए। शिक्षा की कोई प्रणाली, विशेषकर स्कूली शिक्षा, सुविज्ञ, व्यावसायिक दृष्टि से सक्षम, प्रेरित एवं उत्साहित शिक्षकों के सक्रिय सहयोग और समुचित मौजूदगी के बिना फल-फूल नहीं सकती। ऐसे शिक्षकों को इस बात से व्यक्तिगत रूप से संतुष्ट होना चाहिए कि वे न केवल भावी पीढिय़ों का निर्माण कर रहे हैं, बल्कि राष्ट्र का भविष्य भी बना रहे हैं। ऐसे सभी व्यक्तियों के जीवन में अनेक ऐसे उदाहरण मिल सकते हैं, जो कुछ ऐसे शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त करने में भाग्यशाली रहे, जिन्होंने आधिकारिक दस्तावेज में वर्णित दायित्वों और जिम्मेदारियों के दायरे से बाहर जाकर अपने स्नेह और प्रेम के दायरे का विस्तार किया। ऐसे शिक्षकों ने राष्ट्र के बेहतर भविष्य में अपनी आस्था व्यक्त की।
भारत में व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्येक शिक्षक एक बहु-धार्मिक कक्षा में शिक्षा प्रदान करता है और वह जानता है कि प्रत्येक बच्चे को यह एहसास कराना कितना महत्वपूर्ण है कि वह उसके लिए कितना कीमती है। विशेष रूप से प्राथमिक चरणों में केवल शिक्षक ही ऐसे बीज बपन कर सकता है, जो ‘विविधता में एकता’ के रूप में विकसित हो सकें। इस तरह स्कूल सामाजिक संसक्ति, धार्मिक सद्भाव और मूल्य पोषण के केंद्र बन जाते हैं। यहां एक उदाहरण पर्याप्त होगा। 1947-48 में श्रीनगर में सोमनाथ सराफ नाम का एक बच्चा करीब दो सप्ताह बाद स्कूल पहुंचा। मौलवी साहब ने पूछा, ‘सोम तुम कहां थे।’ छोटे बच्चे ने दुर्बल आवाज में कहा ‘मेरी मां की मृत्यु हो गई।’ यह सुन कर मौलवी साहब अपनी सीट से उठे और व्याकुल सोम को स्नेहपूर्वक अपनी बाहों में ंउठा लिया। नम आंखों से ममतापूर्ण स्वर में मौलवी साहब ने कहा, ‘‘आज से मैं तुम्हारी मां हूं।’’ उनका यह वाक्य सोम के लिए जीवनभर एक मंत्र बन गया। इस वाक्य ने एस।एन। सराफ की जिंदगी बदल दी। वे शिक्षा के क्षेत्र में ऊंचे पदों पर पहुंचे, जिनमें योजना आयोग में शिक्षा विभाग के प्रमुख और अति सम्मानित कुलपति जैसे पद शामिल थे। साथ ही, उन्होंने ‘शिक्षा में मूल्यों’ के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया। वे युवा शिक्षकों की मौजूदगी में मौलवी साहब के प्रसंग को अक्सर उद्धृत करते थे, इस उम्मीद के साथ कि इसे सुन कर कम से कम कुछ लोगों में अवश्य बदलाव आएगा।
धर्म ग्रंथों में गुरु और शिष्य के बीच महान समानुभूति और गहरे रिश्ते की परंपरा के अनेक उदाहरण मिलते हैं। ऐतिहासिक आख्यानों में ऐसे प्रोत्साहक और प्रेरक प्रसंगों की कोई कमी नहीं है। आचार्य चाणक्य ने एक बालक की प्रतिभा को देख कर उसे विकसित करने का बीड़ा उठा लिया था। ऐसा करते समय उन्होंने इस बात पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया कि उसकी पृष्ठभूमि क्या थी और अपने प्रयासों से उसे एक शक्तिशाली सम्राट चन्द्रगुप्त के रूप में तब्दील कर दिया। हां, यह सही है कि शिक्षक किन्हीं महत्वहीन, भोले-भाले विद्यार्थियों को महान निष्पादक और उपलब्धि प्राप्तकर्ता के रूप में विकसित कर सकते हैं।
खेलों और क्रीड़ाओं के जगत में प्रशिक्षकों के कुछ प्रेरक उदाहरण मिलते हैं, जहां सफल खिलाड़ी भी उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में समर्पित उपलब्धि हासिल करने वालों की ही तरह अपनी सफलताओं का श्रेय प्रशिक्षकों को देते हुए देखे जा सकते हैं। प्रत्येक कामयाब व्यक्ति अपने गुरुओं के योगदान को स्वीकार करता है। हम सभी ऐसे शिक्षकों के प्रति नतमस्तक होते हैं, जो एक शिक्षक से आगे बढ़ कर उच्चतर भूमिका अदा करता है।
विश्व के प्राचीन समुदाय भारत की ओर आशा भरी नजरों से देखते हैं। भारत एक युवा राष्ट्र है, जिसकी 65 करोड़ आबादी 35 वर्ष से कम आयु वर्ग के लोगों की है। इसे एक महान ‘‘जन सांख्यिकीय लाभ’’ के अवसर के रूप में देखा जा रहा है। क्या भारत इसका लाभ उठा सकेगा। हां, यदि युवा भारत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकता है और प्रशिक्षित है, तो वह देश में उपलब्ध अवसरों का लाभ उठा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय जगत भी ऐसे ‘सक्षम, प्रतिबद्ध और निष्पादक युवाओं’ का इंतजार कर रहा है।
केंद्र में कौशल विकास मंत्रालय की स्थापना सहित अनेक नए उपाय इस दिशा में पहले ही शुरू किए जा चुके हैं। फिर भी, युवाओं और उनके अभिभावकों में एक भरोसेमंद, आत्मविश्वासपूर्ण और पारदर्शितापूर्ण माहौल बनाने की आवश्यकता है कि शिक्षा और कौशल विकास की वैकल्पिक धाराएं युवाओं की प्रतिभाओं को फलने फूलने के अवसर प्रदान करेंगी। लोग धीरे-धीरे परंतु निरंतर यह समझने लगे हैं कि नवाचार और उद्यमशीलता के आयामों से 21वीं सदी में क्रियाशीलता और प्रतिभा के विकास के व्यापक क्षेत्र खुले हैं। देश के प्रत्येक भाग से ऐसे युवाओं और युवतियों की सफलता की कहानियां सामने आ रही हैं, जिन्होंने अपने को रोजगार चाहने वालों की बजाए रोजगार प्रदान करने वालों में तब्दील किया है। इस प्रक्रिया से उनकी रचनाशीलता और उद्यमी कौशल को व्यापक बढ़ावा मिला है और साथ ही अनेक अन्य लोगों को उनसे प्रेरणा मिली है। इन पहलुओं पर कोई भी विचार-विमर्श अनिवार्यत: शिक्षा पर स्थानांतरित हो जाता है और उन मानदंडों की ओर ध्यान दिलाता है जो इसे बेहतर ‘गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा’ में परिवर्तित करते हैं।
व्यापक अर्थों में यह अच्छी गुणवत्ता अनिवार्यत: एक समान बनी रहती है, परंतु इसके ब्यौरे परिवर्तित मांगों के साथ बदलते रहते हैं, जो बाजार की ताकतों और आर्थिक परिवर्तनों तथा समाज पर उनके नतीजतन प्रभाव के कारण पैदा होती हैं। शिक्षा की विषयवस्तु और प्रक्रिया तभी प्रासंगिक बनी रहेगी, जबकि वह मानव व्यवहार और क्रियाशीलता के प्रत्येक क्षेत्र की उभरती हुई और तेजी से बदलती मांगों के साथ गति बना कर रखे। भारत में इसके लिए धारणात्मक परिवर्तन के साथ साथ अधिक ईमानदार, सक्रिय और चुस्त कार्य संस्कृति की आवश्यकता है।
विश्वभर में यह स्वीकार किया गया है कि समस्त प्रौद्योगिकी विषयक परिवर्तनों और ऑनलाइन प्रयासों तथा मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षण माध्यमों के क्लासरूम पर पडऩे वाले प्रभाव के बावजूद कार्मिक शक्ति को तैयार करने में प्रमुख भूमिका शिक्षकों की ही है। यह कहावत कि ‘‘कोई व्यक्ति अपने गुरुओं के स्तर से ऊपर नहीं उठ सकता’’, हमेशा चरितार्थ होती है, बल्कि शाश्वत है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि – यावद्जीवैत अधियाते विप्र: – बुद्धिमान व्यक्ति जीवन पर्यंत सीखना जारी रखते हैं। यह बात आज के संदर्भ में अधिक वैध और प्रासंगिक है। ऐसे शिक्षकों के लिए भविष्य में कोई स्थान नहीं होगा, जो ऐसे नए ज्ञान और कौशल प्राप्त करने के आदी नहीं हैं, जो चारों ओर से निरंतर मिल रहा है।
कल के शिक्षक अपने विद्यार्थियों से तभी सम्मान प्राप्त कर सकेंगे, जबकि वे इस तथ्य के प्रति सजग रहें कि उनकी प्रारंभिक शिक्षा, प्रशिक्षण और कौशल, जीवनभर उनके लिए उपयोगी नहीं हो सकता। केवल प्रज्ज्वलित दीपक ही अन्य दीपक को ज्योति दे सकता है। इसके अतिरिक्त शिक्षकों को एक तरफ विषयवस्तु में होने वाले परिवर्तनों के प्रति सजग रहना होगा, और दूसरी तरफ अध्यापन में नवीनता का भी ध्यान रखना होगा।
उच्चतर शिक्षा में नए आविष्कारों, अनुसंधानों और नवाचारों की जानकारी को उसकी प्रासंगिकता की जांच पड़ताल के बाद पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना होगा। शिक्षा में इस पद्धति को अधिक अपनाने की आवश्यकता है कि नए और युवा शिक्षक अधिक अनुभवी एवं ज्ञानवान शिक्षकों के साथ गहन संवाद जारी रखें। प्रशिक्षण संस्थानों को इसे अपनी गतिविधियों में अवश्य शामिल रखना चाहिए ताकि सेवा पूर्व शिक्षा और सेवाकालीन शिक्षा दोनों से सम्बद्ध लाभप्रद गतिविधियां संचालित की जा सकें। शिक्षक तैयार करने की प्रणाली में शिक्षकों के प्रशिक्षण की बेहतर सुविधाएं प्रदान करना अत्यंत आवश्यक है, जिसे दुर्भाग्य से पिछले करीब दो दशकों में गंभीर क्षति पहुंची है। हाल ही में बेचलर ऑफ एजुकेशन यानी बी।एड कोर्स को दो वर्ष का करने तथा शिक्षक तैयार करने के लिए 4 वर्षीय समेकित पाठ्यक्रम कार्यान्वित करने का निर्णय सही दिशा में एक कदम है।
इतिहास के इस मोड़ पर भावी शिक्षकों और शिक्षा के समक्ष वास्तव में एक विशाल कार्य है। शिक्षा हर एक और प्रत्येक के लिए आशा की किरण है, विशेष रूप से उन व्यक्तियों के लिए जो अभी तक कष्टों, गरीबी, अस्वास्थ्यकर स्थितियों और अन्य सामाजिक आर्थिक उपेक्षाओं से नहीं उभरे हैं। दूसरे विश्वयुद्ध और औपनिवेशिक युग के बाद मार्च, 1990 में थाईलैंड के जोमतिएन शहर में हुए सम्मेलन में सबके लिए शिक्षा – ईएफए – के ऐतिहासिक निर्णय का विस्तार पूरे विश्व में स्वीकार किया गया और सन 2000 में डकार में इसकी पुन: पुष्टि की गई। शैक्षिक जगत में उपलब्धियों के रूप में गिनाने को भारत के पास बहुत कुछ है। यूनेस्को शिक्षा संस्थान के सितंबर, 2013 के आंकड़ों के अनुसार प्रौढ़ साक्षरता दर 84.1 प्रतिशत और युवा साक्षरता दर 89।5 प्रतिशत दर्ज हुई। वयस्क निरक्षरों की संख्या 77.35 करोड़ और युवा निरक्षरों की संख्या 12.32 करोड़ होने का अनुमान है। अभी तक बहुत कुछ हासिल किया गया है, परन्तु बहुत कुछ कठिन कार्य अभी शेष हैं। इस संस्थान की एक अद्यतन रिपोर्ट में अनुमान व्यक्त किया गया है कि माध्यमिक और वरिष्ठ माध्यमिक स्तर पर स्कूल जा सकने योग्य करीब 4.7 करोड़ युवा स्कूल से बाहर हैं। इसके अतिरिक्त देशभर में करीब 20 लाख शिक्षकों की कमी है। वास्तविक अर्थ में यह संख्या और अधिक हो सकती है, क्योंकि बड़ी संख्या में अद्र्ध-शिक्षक काम कर रहे हैं। इससे नियमित शिक्षकों की रिक्तियां काफी अधिक हो सकती हैं। देश में स्कूलों के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों की कोई कमी नहीं है। देश में 16 हजार से अधिक शिक्षक प्रशिक्षक संस्थान हैं, फिर भी शिक्षकों की गुणवत्ता वह नहीं है, जिसकी आवश्यकता बेहतर भविष्य के लिए, इस स्तर पर देश को है। अध्यापक पात्रता परीक्षा, टीईटी, से पता चलता है कि इसे सफलतापूर्वक उत्तीर्ण करने वालों का प्रतिशत बहुत कम है। इस क्षेत्र में अन्य प्रमुख रुकावटों में भर्ती प्रक्रिया का पुरातन होना, उसमें पारदर्शिता का अभाव होना और उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप होना शामिल है। उच्चतर शिक्षा में भर्ती की पद्धति के मानदंड तेजी से बदलते हैं, जिनसे युवाओं को शिक्षण एवं अनुसंधान के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए लंबा इंतजार करने में हताशा का सामना करना पड़ता है।
भावी शिक्षकों की उभरती भूमिका, जिम्मेदारी और कार्य निष्पादन के स्तरों का खुलासा डेलर्स कमीशन रिपोर्ट ‘‘लर्निंग द ट्रेजर विदइन’’ में सारगर्भित ढंग से किया गया है। यह रिपोर्ट यूनेस्को द्वारा 1996 में प्रकाशित की गई थी। परिवर्तन के एक एजेंट, समझ एवं सहिष्णुता प्रोत्साहित करने में शिक्षक का महत्व जितना स्वाभाविक रूप में आज अपेक्षित है, उतना पहले कभी नहीं था। 21वीं सदी में इसकी भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण बनने की संभावना है। परिवर्तन की आवश्यकता, यानी संकीर्ण राष्ट्रवाद को सार्वभौमिकतावाद में बदलने, जातीयता और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह को सहिष्णुता, समझदारी और बहु-समुदायवाद में बदलने, विभिन्न प्रकार से प्रकट होने वाली निरंकुशता को लोकतांत्रिक प्रणाली में बदलने और प्रौद्योगिकी के आधार पर विभाजित विश्व, जहां उच्च प्रौद्योगिकी पर गिने चुने देशों का विशेषाधिकार है, को प्रौद्योगिकी की दृष्टि से एकजुट विश्व में बदलने के लिए शिक्षकों पर भारी जिम्मेदारी है, जो नई पीढ़ी के चरित्र और मस्तिष्क को सही दिशा देने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं। लक्ष्य बहुत ऊंचे हैं और बचपन में जो नैतिक मूल्य अपनाए जाते हैं, उनका विशेष महत्व जीवनभर बना रहता है। 20 वर्ष पहले उभरे वातावरण का ये मूल्यांकन है कि पिछले 2 दशकों में चीजें और अधिक जटिल हो गई हैं। डिजिटल विभाजन से आर्थिक अंतराल बढऩे का खतरा पैदा हो गया है, जिसका तात्कालिक दुष्प्रभाव समतावादी समाज की दिशा में बढऩे की भावना पर
पड़ता है। लोग और अभिभावक अधिक चुस्त और परस्पर क्रियाशील नजर आते हैं। वे न केवल शिक्षा की, बल्कि अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की मांग करते हैं। जो पेश किया जा रहा है, वे उससे संतुष्ट नहीं हैं। वे यह जानना चाहते हैं कि जो सीखा जा रहा है, वह सीखने वाले के जीवन में समुचित स्थापन में कैसे योगदान करेगा।
कल के शिक्षकों को इस तथ्य के प्रति सचेत रहना होगा कि आईसीटी (सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी) में नई खोजें बच्चों को आकर्षित करती हैं, जिनमें वे बड़ों की तुलना में अधिक तेजी से प्रवीणता हासिल कर लेते हैं। भविष्य में शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच विचार-विमर्श में ‘‘दो तरफा शिक्षण’’ स्वयं के लिए जगह बनाएगा। एक साथ ‘सीखने के लिए सिखाना’ की धारणा भी अपेक्षित कौशल के रूप में देखी जाएगी। सीखने वालों और प्रशिक्षकों दोनों को एक साथ सीखने के बहुस्रोतों तक पहुंच कायम करनी होगी और ज्ञान एवं कौशल अर्जित करना होगा। यह उपलब्धता, संभव है कि हमेशा विकास की प्रक्रिया में सहायक न हो, क्योंकि इससे यह मुमकिन है कि सीखने वाला यदि परिपक्वता का वांछित स्तर हासिल नहीं करेगा, या उसे समुचित मार्गदर्शन नहीं मिलेगा, तो उसके भटकने की आशंका रहेगी। ऐसी स्थिति में विवेकपूर्ण कौशल (सही, गलत आदि को परखने की क्षमता) यानी व्यक्ति का विवेक काम आता है। यह विवेक का व्यावहारिक अनुप्रयोग है, जो मानव रूपांतरण, प्रगति और विकास की प्रक्रिया को गति प्रदान करने में योगदान करता है। वैज्ञानिक परमाणु (एटम) की जानकारी के सर्वोच्च बिंदु पर पहुंच चुके हैं। वे जानते हैं कि इसे किस तरह ऊर्जा का स्रोत बनाया जा सकता है। मानवीय मूल्यों की कमी और विवेक के अभाव के कारण जापान में क्या हुआ। अत: प्रत्येक शिक्षक को विवेकपूर्ण कौशल पर नियंत्रण हासिल करना होगा। आईसीटी के गरिमापूर्ण युग में मानवीय मूल्यों को धारण करना और उनका अंतर्राष्ट्रीयकरण करना तथा विवेक की कला एवं कौशल को समझना महत्वपूर्ण है, जो अकेले सीखने वाले को सही मार्ग पर पथ-प्रदर्शन कर सकता है। यह आज और कल के शिक्षक के समक्ष एक अद्यतन चुनौती है।
(लेखक एक शिक्षाविद् और एनसीईआरटी, नई दिल्ली के पूर्व निदेशक हैं।)