हर साल के अंतराल पर लगने वाले कुंभ को महाकुंभ कहा जाता है‚ यह अनायास ही है कि बारहवीं बोर्ड की परीक्षा को भी विद्यार्थी जीवन का महाकुंभ ही माना जाता है। महामारी के दूसरे दौर में यह भी देशव्यापी चिंता है कि बारहवीं की परीक्षा कैसे और कब हो‚ क्या इसे रद्द किया जा सकता है या टाला जाए तो कब तक। शिक्षा को लेकर जो भी सामाजिक–राजनैतिक विमर्श गाहे–बगाहे पनपता है‚ वह परीक्षा और मूल्यांकन के ईद गिर्द सिमट कर रह जाता है। सकल जीवन को ही परीक्षा मानने वाले भी बारहवीं की परीक्षा को लेकर चिंतातुर हैं॥। प्रत्येक वर्ष औसतन एक करोड़ विद्यार्थी बारहवीं की परीक्षा के लिए बैठते हैं। इनका भिन्न केंद्रों तक पहुंचना‚ वहां निरीक्षकों की नियुक्ति‚ प्रश्न पत्र का पहुंचना‚ उत्तर पुस्तिकाओं का जांचा जाना‚ नतीजों का संकलन और प्रकाशन‚ कुल मिलाकर केंद्रीय और राज्य के भिन्न बोर्डों द्वारा परीक्षा का आयोजन किसी कुंभ के आयोजन से कमतर नहीं है और इस पूरी प्रक्रिया से संक्रमण के फैलाव में एक और अभूतपूर्व तेजी आ सकती है। फिर भी सीबीएसई (केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड) इस परीक्षा को कराने की कवायद में मुस्तैदी और कर्त्तव्यनिष्ठा प्रकट करने में कसर नहीं रखना चाहता। इस परीक्षा के आयोजन को लेकर ढुलमुल रवैया व्यवस्था और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी उजागर कर रहा है। अनिश्चितता विद्याÌथयों‚ शिक्षकों और अभिभावकों के लिए अधिक तनावपूर्ण है। बारहवीं कक्षा के नतीजे प्रायः आगे की पढ़ाई में दाखिले के लिए इस्तेमाल होते हैं‚ और कुछ रोजगारपरक परीक्षाओं में अनिवार्य योग्यता के लिए प्रयुक्त होते हैं। ॥ परीक्षाओं की वैधता इसकी एक चारित्रिक विशेषता पर निर्भर करती है‚ और वह है इसके वस्तुनिष्ठ होने का दावा। शायद इसीलिए बोर्ड परीक्षा के केंद्र विद्यार्थी के पढ़ने वाले स्कूल से भिन्न होते हैं। एक जैसे प्रश्न पत्र और उत्तर पुस्तिका के चिह्नित ना हो सकने की क्षमता और मूल्यांकनकर्ता की गोपनीयता और प्रक्रिया इसके नतीजों के ‘वस्तुनिष्ठ’ होने का प्रमाण देती हैं। यह भी रेखांकित करती हैं कि अध्यापक–विद्यार्थी के संबंध गतिकी के चलते अध्यापक से उसके अपने विद्याÌथयों के निरपेक्ष और निष्पक्ष मूल्यांकन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। सतत और व्यापक मूल्यांकन का दर्शन भले ही कागज और नीतियों में उकेरा जा चुका है पर अभी भी व्यवस्था और समाज में यह अपनी पैठ नहीं बना पाया है। परीक्षा और उसमें ‘असफल’ होने के भय के प्रति हमारा सामाजिक अनुराग है। आठवीं तक के विद्याÌथयों को ‘फेल’ ना करने के प्रति विरोध के स्वर सर्वाधिक‚ अध्यापकों और अभिभावकों से ही मुखर हुए। ग्रेडिंग प्रणाली को लेकर भी संशय और अंतिम दशमलव तक ग्रेड के अनुवाद के भरसक प्रयास‚ इसी परीक्षा और वस्तुनिष्ठता के प्रति हमारी हद दर्जे की आसक्ति को ही परिलक्षित करता है। वर्ष भर स्कूलों का नियमित न खुलना‚ अपने स्नेही और स्वजनों के रोगग्रस्त होने का भय या उनकी मृत्यु‚ परामर्श के पर्याप्त अवसरों का ना होना वैसे ही विद्याÌथयों को एक भिन्न मानसिक तनाव में रखे हुए हैं‚ ऐसे में परीक्षा होती भी है तो क्या उस में विद्यार्थी सहज एवं भरपूर प्रतिभागिता कर पाएंगेॽ यह एक भिन्न यक्ष प्रश्न है। मूल्यांकन के विकल्पों को तलाशने के लिए शिक्षा मंत्रालय इस आपदा का अवसर के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। ॥ यह बात दीगर है कि मेरिट अथवा उत्कृष्टता का मूल्यांकन ही किसी समाज में ढांचागत समानता का भाव लाता है। तमाम सामाजिक विभेदों को भोथरा करने का भी निर्वहन करता है परंतु ऐसे समय में परीक्षा का आयोजन‚ चुनाव और कुंभ की तरह एक नये ‘सुपर–स्प्रेडर’ का काम करेगा। यह समय परीक्षा की अग्नि परीक्षा का है‚ और साथ ही बेशक‚ शिक्षा–मूल्यांकन के युग्मात्मक संबंध को तोड़ने का भी है। शिक्षा आयोगों की भिन्न रिपोर्टों के बीच कोठारी आयोग यह जरूर सुझाता है कि राष्ट्र का निर्माण उसकी कक्षाओं में होता है परंतु यह परीक्षा कक्ष में होता है‚ ऐसी संभावना केवल बोर्ड परीक्षाओं के आयोजन की तत्परता से ही हमें प्रतीत होता है॥।
(लेखक हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय में ॥ अध्यापनरत। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)॥
साभार- राष्ट्रीय साहारा