अगर आप छोटे बच्चे के माता-पिता हैं, तो आपको चिंता होगी कि क्या नई शिक्षा नीति के बाद भी आपको अपने बच्चे के नर्सरी में दाखिले के लिए माथापच्ची करनी होगी.
अगर आपके बच्चे 10वीं 12वीं में पढ़ने वाले हैं तो आपको चिंता होगी कि कॉलेज में दाखिले के लिए क्या 99 फ़ीसदी ही लाने होंगे?
और अगर आपके बच्चे कॉलेज में पढ़ रहे हैं, तो आपको चिंता होगी नौकरी की?
क्या नई शिक्षा नीति से नौकरी में उनको सहूलियत मिलेगी?
5+3+3+4 क्या है?
देश की नई शिक्षा नीति में आम जनता ऐसे ही सवालों के जवाब ढूँढ रही है.
सबसे पहले शुरुआत स्कूली शिक्षा से करते हैं. नई शिक्षा नीति में पहले जो 10+2 की बात होती थी, अब उसकी जगह सरकार 5+3+3+4 की बात कर रही है.
5+3+3+4 में 5 का मतलब है – तीन साल प्री-स्कूल के और क्लास 1 और 2 उसके बाद के 3 का मतलब है क्लास 3, 4 और 5 उसके बाद के 3 का मतलब है क्लास 6, 7 और 8 और आख़िर के 4 का मतलब है क्लास 9, 10, 11 और 12.
यानी अब बच्चे 6 साल की जगह 3 साल की उम्र में फ़ॉर्मल स्कूल में जाने लगेंगे. अब तक बच्चे 6 साल में पहली क्लास मे जाते थे, तो नई शिक्षा नीति लागू होने पर भी 6 साल में बच्चा पहली क्लास में ही होगा, लेकिन पहले के 3 साल भी फ़ॉर्मल एजुकेशन वाले ही होंगे. प्ले-स्कूल के शुरुआती साल भी अब स्कूली शिक्षा में जुड़ेंगे.
3 लैंग्वेज फ़ॉर्मूला
इसके अलावा स्कूली शिक्षा में एक और महत्वपूर्ण बदलाव है भाषा के स्तर पर. नई शिक्षा नीति में 3 लैंग्वेज फ़ॉर्मूले की बात की गई है, जिसमें कक्षा पाँच तक मातृ भाषा/ लोकल भाषा में पढ़ाई की बात की गई है.
साथ ही ये भी कहा गया है कि जहाँ संभव हो, वहाँ कक्षा 8 तक इसी प्रक्रिया को अपनाया जाए. संस्कृत भाषा के साथ तमिल, तेलुगू और कन्नड़ भाषा में पढ़ाई पर भी ज़ोर दिया गया है.
सेकेंड्री सेक्शन में स्कूल चाहे तो विदेशी भाषा भी विकल्प के तौर पर दे सकेंगे.
इसी को कुछ जानकार आरएसएस का एजेंडा बता रहे हैं. लोग ये भी पूछ रहे हैं कि दक्षिण भारत का बच्चा दिल्ली में आएगा तो वो हिंदी में पढ़ेगा, तो वो कैसे पढ़ेगा?
बोर्ड एक्ज़ाम
स्कूली शिक्षा में तीसरी बात बोर्ड परीक्षा में बदलाव का है. पिछले 10 सालों में बोर्ड एग्ज़ाम में कई बदलाव किए गए. कभी 10वीं की परीक्षा को वैकल्पिक किया गया, कभी नबंर के बजाए ग्रेड्स की बात की गई.
लेकिन अब परीक्षा के तरीक़े में बदलाव की बात नई शिक्षा नीति में की गई है. बोर्ड एग्जाम होंगे, और अब दो बार होंगे. लेकिन इनको पास करने के लिए कोचिंग की ज़रूरत नहीं होगी.
परीक्षा का स्वरूप बदल कर अब छात्रों की ‘क्षमताओं का आकलना’ किया जाएगा, ना कि उनके यादाश्त का. केंद्र की दलील है कि नंबरों का दवाब इससे ख़त्म होगा. 2022-23 वाले सत्र से इस बदलाव को लागू करने की मंशा है.
इन बोर्ड परीक्षाओं के अतिरिक्त राज्य सरकारें कक्षा 3, 5 और 8 में भी परीक्षाएँ लेंगी. इन परीक्षाओं को करवाने के लिए गाइड लाइन बनाने का काम नई एजेंसी को सौंपा जाएगा, जो शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत ही काम करेगी.
अंडर ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट में क्या बदला
इसी तरह के बदलाव उच्च शिक्षा में भी किए गए हैं. अब ग्रेजुएशन (अंडर ग्रेजुएट) में छात्र चार साल का कोर्स पढ़ेगें, जिसमें बीच में कोर्स को छोड़ने की गुंजाइश भी दी गई है.
पहले साल में कोर्स छोड़ने पर सर्टिफ़िकेट मिलेगा, दूसरे साल के बाद एडवांस सर्टिफ़िकेट मिलेगा और तीसरे साल के बाद डिग्री, और चार साल बाद की डिग्री होगी शोध के साथ.
उसी तरह से पोस्ट ग्रेजुएट में तीन तरह के विकल्प होंगे.
पहला होगा दो साल का मास्टर्स, उनके लिए, जिन्होंने तीन साल का डिग्री कोर्स किया है.
दूसरा विकल्प होगा चार साल के डिग्री कोर्स शोध के साथ करने वालों के लिए. ये छात्र एक साल का मास्टर्स अलग से कर सकते हैं.
और तीसरा विकल्प होगा, 5 साल का इंटिग्रेटेड प्रोग्राम, जिसमें ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन दोनों एक साथ ही हो जाए.
अब पीएचडी के लिए अनिवार्यता होगी चार साल की डिग्री शोध के साथ. एमफिल को नई शिक्षा नीति में बंद करने का प्रावधान है.
उच्च शिक्षा में स्कॉलरशिप के लिए नई शिक्षा नीति में प्रस्ताव है. इसके लिए नेशनल स्कॉलरशिप पोर्टल के दायरे को और अधिक व्यापक बनाने की बात है. प्राइवेट संस्थाएँ, जो उच्च शिक्षा देंगी उनको 25 फ़ीसदी से लेकर 100 फ़ीसदी तक स्कॉलरशिप अपने 50 फ़ीसदी छात्रों को देना होगा – ऐसा प्रावधान इस शिक्षा नीति में किया गया है.
उच्च शिक्षा संस्थानों को ग्रांट देने का काम हायर एजुकेशन ग्रांट्स कमिशन करेगा. इसके अलावा इन संस्थाओं के अलग-अलग विभागों के लिए नियम, क़ानून और गाइड लाइन तैयार करने की ज़िम्मेदारी होगी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंडा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की माँग लंबे समय से रही है कि देश की शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण होना चाहिए.
आरएसएस के सर संघचालक मोहन भावगत अनेक बार कह चुके हैं कि “प्राचीन ज्ञान परंपरा को किनारे रखकर भारत एक राष्ट्र के रूप में सबल नहीं हो सकता है.”
आरएसएस की माँग मानव संसाधन मंत्रालय का नाम बदलने की थी, जिसे अब एक बार फिर पहले की तरह शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है. वैदिक गणित, दर्शन और प्राचीन भारतीय परंपरा से जुड़े विषयों को अहमियत देने के बारे में नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि “इनको तार्किक और वैज्ञानिक आधार जाँचने के बाद जहाँ प्रासंगिक होगा, वहाँ पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाएगा.”
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई संगठनों ने विदेशी विश्वद्यालयों को भारत में कैम्पस खोलने की अनुमति देने का विरोध किया था लेकिन इस मामले में उनकी बात नहीं मानी गई है.
शुरूआत में आरएसएस का ज़ोर “राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा देने के लिए” पूरे देश में प्राथमिक स्तर पर हिंदी पढ़ाने पर था, लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों, ख़ास तौर पर तमिलनाडु के विरोध के बाद यह स्वीकार कर लिया गया है कि हिंदी की जगह जहाँ जो मातृभाषा है, उसी में पढ़ाई होनी चाहिए.डॉ. रुक्मणि बनर्जी, सीईओ ‘प्रथम’ फ़ाउंडेशन
‘प्रथम’ फ़ाउंडेशन की सीईओ डॉ. रुक्मणि बनर्जी की राय
पाँचवीं का बच्चा तीसरी की किताब नहीं पढ़ सकता, चौथी के बच्चे को जोड़ना और घटाना नहीं आता, अक्सर प्रथम की ओर से तैयार की गई ‘असर’ की रिपोर्ट में भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए ऐसी रिपोर्ट्स आती थी. लेकिन क्या नई शिक्षा नीति के लागू होने के बाद ये रिपोर्ट बदल जाएगी?
बीबीसी ने बात की ‘प्रथम’ एनजीओ फ़ाउंडेशन की सीईओ रुक्मणि बनर्जी से.
उनके मुताबिक़ अक्सर नीतियाँ काग़ज़ पर तो अच्छी हैं, लेकिन लागू कैसे और कब होती है ये सबसे बड़ा चैलेंज होगा. उन्होंने बताया कि प्राथमिक शिक्षा को इस नई पॉलिसी में काफ़ी अहमियत दी गई है.
ये अच्छी बात है. क्योंकि पहली में बच्चा सीधे स्कूल में आता था, तो उस वक़्त वो दिमाग़ी तौर पर पढ़ने के लिए तैयार नहीं आता था. तीन साल के प्री-स्कूल के बाद अगर अब वो पहली में आएगा, तो मानसिक तौर पर सीखने के लिहाज से पहले के मुक़ाबले ज़्यादा तैयार होगा.
पंजाब, हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाक़ों में स्कूलों में प्री-प्राइमरी में इस 5+3+3+4 पर काम भी चल रहा है और नतीज़े भी अच्छे सामने आए हैं.
मातृ भाषा में पढ़ाने को भी रूक्मणि एक अच्छा क़दम मानती है. छोटा बच्चा दुनिया घूमा नहीं होता, ज़्यादा ज़बान नहीं समझता, तो घर की भाषा को स्कूल की भाषा बनाना बहुत लाभदायक होगा.
लेकिन रुक्मणि को लगता है कि इसके लिए आंगनबाड़ियों को तैयार करना होगा. हमारे देश में आंगनबाड़ी सिस्टम बहुत अच्छा माना जाता है. फ़िलहाल उनको हेल्थ और न्यूट्रिशन के लिए ट्रेन किया गया है. उनको अब बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने की ट्रेंनिग देना पड़ेगा.
महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय और शिक्षा को इसके लिए एक साथ आकर काम करने की ज़रूरत होगी.
नई चुनौतियों की बात पर वो कहतीं है, “हम भारत के लोग कुंभ मेला तो बहुत अच्छा आयोजित कर पाते हैं, लेकिन इलाहाबाद शहर को जब चलाने की बात आती है, तो दिक़्क़त आती है. 100 चीज़ें एक साथ नहीं हो सकती, इसके लिए एक सीढ़ीनुमा रोड मैप भी होना चाहिए. वो इसे नई नीति को साँप-सीढ़ी का खेल कहती हैं. खेलने वालों को साँप का भी अंदाज़ा होना चाहिए और सीढ़ियों का भी. इस नई नीति में ऊपर जाने के भी रास्ते हैं और लुढ़क कर नीचे आने के रास्ते भी. संभल कर नहीं खेलने के हारने का ख़तरा भी होगा. इसके लिए सहारा चाहिए होगा, जैसे साँप-सीढ़ी खेलने के लिए गोटियाँ चाहिए होती है और प्लेयर चाहिए होते हैं. स्कूलों को भी वैसे ही सहारे की ज़रूरत होगी.”
रुक्मणि मानती हैं कि अगर ये नई शिक्षा नीति सही लागू हो जाती है, तो पाँच साल बाद असर की रिपोर्ट में वो बातें नहीं होंगी जो आज तक हम सुनते आए हैं.प्रोफेसर अनिल सदगोपाल – शिक्षाविद
प्रोफेसर अनिल सदगोपाल – शिक्षाविद
अनिल सदगोपाल देश के जाने माने शिक्षाविदों में से एक है. वे शिक्षा से जुड़ी कई समितियों में शामिल भी रहे हैं. फ़िलहाल अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच से जुड़े हैं और भोपाल में रहते हैं.
नई शिक्षा नीति को वो आरएसएस से स्वीकृति लेने के बाद जारी किया गया ड्राफ्ट बताते हैं. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि इस शिक्षा नीति को मूलत: तीन बिंदुओं से देखने की ज़रूरत है. पहला- इससे शिक्षा में कॉरपोरेटाइजेशन को बढ़ावा मिलेगा, दूसरा इससे उच्च शिक्षा के संस्थानों में अलग-अलग ‘जातियाँ’ बन जाएँगी, और तीसरा ख़तरा है अति-केंद्रीकरण का.
अनिल सदगोपाल अपने इस विचार के पक्ष में तर्क भी देते हैं. उनके मुताबिक़ मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में नीति आयोग ने स्कूलों के लिए परिणाम-आधारित अनुदान देने की नीति लागू करने की बात पहले ही कह दी है.
ऐसे में जो स्कूल अच्छे होगें, वो और अच्छे होते चले जाएँगे और ख़राब स्कूल और अधिक ख़राब. ये हम सब जानते हैं कि सरकारी स्कूल प्राइवेट के मुक़ाबले कहाँ हैं. तो इससे फ़ायदा प्राइवेट वालों को ही होगा. उनका मानना है कि इसी संदर्भ में नई शिक्षा नीति में स्कूल कॉम्प्लेक्स का प्रावधान किया गया है.
उनका आरोप है कि इस शिक्षा नीति में आरक्षण का ज़िक्र तक नहीं हैं.
वो आगे कहते हैं कि देश की 80 फ़ीसदी आबादी दलित, मुस्लिम, ओबीसी, आदिवासी और अति पिछड़ा वर्ग है. उनमें से ज़्यादातर छात्र जो कक्षा एक में दाख़िला लेते हैं वो 12वीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते.
वोकेशनल कोर्स के नाम पर ग़रीब और निचले तबके के लोगों को मुख्यधारा से अलग करने की एक कोशिश है नई शिक्षा नीति. स्किल इंडिया मिशन के बहाने ऐसे लोगों को कम दिहाड़ी के दुकानों पर मज़दूरी करने के लिए धकेल दिया जाएगा. 12वीं अगर पास भी कर लेंगे तो डॉक्टर इंजीनियर नहीं बन पाएँगे.
उनका तीसरा आरोप है कि इंडियन एजुकेशन सर्विस, राष्ट्रीय शोध प्रतिष्ठान, नेशनल हायर एजुकेशन रेगुलेटरी ऑथोरिटी, नेशनल टेस्टिंग एजेंसी जैसी नई-नई संस्थाएँ बना कर केजी से पीजी तक सब कुछ केंद्र सरकार अपने हाथ में ले लेना चाहती हैं, जिसमें स्वयं सेवकों का भी अहम रोल होगा.
उनके मुताबिक़ चार साल का ग्रेजुएशन विदेशों मे प्रचलित प्रणाली है. इस पर देश में पहले भी विरोध हो चुका है इसे दोबारा लागू करने के पीछे मंशा स्पष्ट है.प्रोफेसर राकेश सिन्हा, राज्य सभा सांसद
प्रोफ़ेसर राकेश सिन्हा, राज्य सभा सांसद
प्रोफेसर राकेश सिन्हा आरएसएस से जुड़े रहे हैं और प्रोफ़ेसर भी है. इसलिए सरकार और आरएसएस से जुड़े जितने सवाल और आरोप दूसरे जानकारों ने बीबीसी के सामने रखा उसका जवाब हमने उनसे माँगा.
राकेश सिन्हा कहते हैं, “ये पहली बार है कि शिक्षा नीति को व्यापक परामर्श से तैयार कर बनाया गया है. इसमें ख़ामियाँ हो सकती है, लेकिन जितने भी सुझाव आए थे, उनको मंथन का हिस्सा बनाया गया है. इस शिक्षा नीति की दूसरी विशेषता ये नीति क्लास रूम से बाहर शिक्षा को ले जाने की पहल है. नई शिक्षा नीति ने उसे रोज़गार से जोड़ा है. वोकेशनल एजुकेशन को इस लिहाज से जोड़ा गया है. अब तक शिक्षा का मतलब फ़ॉर्मल एजुकेशन से हुआ करता था, लेकिन अब अनऔपचारिक यानी इन-फ़ॉर्मल एजुकेशन को भी शिक्षा के दायरे में लाया गाया है. कोविड के दौर में जो आर्थिक संकट नज़र आ रहा है, उसकी एक वजह है लोगों में स्व-रोज़गार की भावना और उसके प्रति सम्मान की कमी. नई शिक्षा नीति इसी को दूर करेगी.”
यानी जो बात प्रोफेसर अनिल को इस शिक्षा नीति में ख़ामी के तौर पर दिख रही है, राकेश सिन्हा इसी बात को नई शिक्षा नीति की ख़ूबी बता रहे हैं.
चार साल के अंडर ग्रेजुएट लाने की ज़रूरत दोबारा क्यों पड़ी, इस सवाल के जवाब में राकेश सिन्हा कहते हैं, “पहले केवल एक विश्वविद्यालय में लाने की बात थी, अब ये सभी में लागू होगा. वो कहते हैं कि पहले चार साल के कोर्स का विरोध सैद्धांतिक नहीं था, एक ख़ास संदर्भ में था कि सरकार ने आगे पीछे की कोई योजना नहीं बनाई थी. उनका तर्क है कि इसलिए इस बार चार साल के कोर्स में एग्ज़िट सिस्टम का प्रावधान है. विदेश में ये प्रणाली प्रचलित है, तो अपनाने में बुराई किया है. दुनिया के साथ चलने की एक कोशिश है. रही बात बाहर के विश्विविद्यालयों को देश में मंज़ूरी देने की, तो इसके लिए नए शिक्षा नीति में उन्हें रेगुलेट करने का व्यापक प्रावधान है. इसके लिए शर्तें क्या होंगी, क़ानून और गाइड लाइन क्या होगी इसकी इस नीति में स्पष्टता है.”
प्रोफ़ेसर सिन्हा के मुताबिक़ सोशल साइंस के क्षेत्र में बाहर की संस्थाएँ देश में नहीं आएँगी, केवल मैनेजमेंट, इंजीनियरिंग, और दूसरे विज्ञान के क्षेत्र में आएँगी और इससे हमारी मूल अस्मिता पर प्रभाव नहीं पड़ता है. इसको इस रूप में देखा जाना चाहिए कि हमने दुनिया से ख़ुद को काटा भी नहीं है और अपने मौलिक सिद्धांतों पर भी क़ायम हैं.
वो आगे कहते हैं जो लोग कॉर्पोरेट के हाथों में शिक्षा व्यवस्था सौंपने का आरोप लगा रहे हैं वो पिछले चार दशकों को भूल गए हैं, जिसमें ये व्यवस्था खड़ी की गई. वास्तविकता तो ये है कि अब एक रेगुलेशन होगा – चाहे मूल्यांकन हो या फीस. अब शिक्षा का बजट भी बढ़ाया गया है.
अब 12वीं की पढ़ाई के कॉलेज की चिंता नहीं होगी, क्योंकि इस नीति में उनकी संख्या बढ़ाने पर ज़ोर है. 99 फ़ीसदी के चक्कर में छात्रों को इसलिए पड़ना पड़ता है, क्योंकि डिमांड ज़्यादा है और सप्लाई कम. अब दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे कई और विश्विद्यालय खोले जाएँगे, तो छात्रों के पास ज़्यादा विकल्प मौजूद होंगे.
संस्कृत और मातृ भाषा में पढ़ाई को अनिवार्य बनाने पर राकेश सिन्हा का कहना है कि ये भाषा आरएसएस की बनाई भाषा नहीं है. वो कहते हैं, “हमने किसी भाषा का विरोध नहीं किया है. मातृभाषा को पांचवीं कक्षा तक महत्तव देकर ना सिर्फ़ बच्चों की पढ़ाई आसान की गई और भारतीय भाषाओं में भी जान फूका गया है. वे औपनिवशिक भाषा अंग्रेजी के दबाव में दम तोड़ रहे हैं. सात दशकों में हमने साक्षरता दर जितनी बढ़ाई है, नई नीति से हम इसे 100 फीसदी तक पहुँचा देंगे.
संस्कृत दुनिया के दो दर्जन से ज्यादा विश्विद्यालयों में प्रतिबद्धता के साथ पढ़ाई जा रही है, इसलिए इस भाषा को किसी जाति, संप्रदाय या फिर संगठन से जोड़ कर देखना उन लोगों का बौधिक खोखलापन दिखाता है.
source: bbc.com/hindi