अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) के अंतर्गत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के न्याय हेतु कड़े कदम उठाए गए हैं। इस अत्याचार निवारण अधिनियम को भरसक प्रयासों के साथ इतना सशक्त बनाने के प्रयास किए गए हैं कि किसी भी स्थिति में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों के मामलों में उन्हें पूर्ण रूप से न्याय मिले तथा अन्य लोग इन जातियों के प्रति अत्याचार से संबंधित अपराध करने से भयभीत रहे तथा उन्हें अत्याचार संबंधित अपराध करने से निवारित किया जा सके। इस उद्देश्य से ही इस अधिनियम के अंतर्गत अंतिम धाराओं में कुछ दो तीन बातें भी ऐसी जोड़ी गई है जो इस अधिनियम को कड़ा रूप प्रदान करती हैं, उनका उल्लेख इस आलेख में मूल धाराओं के साथ कुछ न्याय निर्णय के साथ किया जा रहा है। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार (निवारण अधिनियम) 1989 के कुछ कड़े प्रावधान:- इस अधिनियम की धारा 18, 19 और 20 में इस अधिनियम को कड़े बनाने के प्रयास किए गए हैं निम्न तीन बातों को इन तीन धाराओं में जोड़ा गया है:- 1)- एफआईआर दर्ज करते समय किसी जांच की आवश्यकता नहीं होना। 2)- अभियुक्त को अपराधी परिवीक्षा का लाभ नहीं मिलना। 3)- अन्य अधिनियम का प्रभावहीन होना। 1)- एफ आई आर दर्ज करते समय किसी जांच की आवश्यकता नहीं होना:- इस अधिनियम की धारा 18(क) के अंतर्गत एक पुलिस अधिकारी को प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज करने हेतु किसी अन्वेषण या पूर्व अनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं होगी। एक पुलिस अधिकारी अपने समक्ष उपस्थित हुए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्य की मौखिक शिकायत पर आवेदन को लिखेगा तथा उसे पढ़कर सुनाएगा और उस पर उस पीड़ित के हस्ताक्षर करवाएगा। यह प्रक्रिया इस अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत की गई है तथा धारा 18(क) में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि कहीं भी कोई पुलिस अधिकारी किसी जांच के संबंध में कोई आश्वासन नहीं देगा। अनुसूचित जाति के सदस्य को शिकायत दर्ज कराने में भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना होता था। उसकी एफआईआर संबंधित पुलिस थाने पर दर्ज नहीं की जाती थी। रसूखदार लोग पुलिस पर रसूख डालकर ऐसे अनुसूचित जाति के सदस्य को दबाने का प्रयास करते थे। पुलिस अधिकारी जांच करने का आश्वासन देकर बात को टालने का प्रयास करते थे। इसी पर स्थिति से निपटने के उद्देश्य से इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 18(क) को प्रस्तुत किया गया है जिसका मूल स्वरूप कुछ इस प्रकार है:- [धारा 18 (क)- किसी जांच या अनुमोदन का आवश्यक न होना- (1) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए – (क) किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के रजिस्ट्रीकरण के लिए किसी प्रारम्भिक जांच की आवश्यकता नहीं होगी; या (ख) किसी ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी, यदि आवश्यक हो, से पूर्व अन्वेषक अधिकारी को किसी अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होगी, जिसके विरुद्ध इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध के किए जाने का अभियोग लगाया गया है और इस अधिनियम या संहिता के अधीन उपबंधित प्रक्रिया से भिन्न कोई प्रक्रिया लागू नहीं होगी। (2) किसी न्यायालय के किसी निर्णय या आदेश या निदेश के होते हुए भी, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के उपबंध इस अधिनियम के अधीन किसी मामले को लागू नहीं होंगे। ] 2)- अपराधी परिवीक्षा का लाभ नहीं दिया जाना (धारा 19):- दंड प्रक्रिया संहिता धारा 360 और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम किसी ऐसे अपराधी को सुधारने का प्रयास करते हैं जिसने कम गंभीर अपराध किया है तथा जिसकी आयु कम है और वे जिसका अपराध प्रथम बार है। अर्थात किसी ऐसे व्यक्ति को जो कोई अभ्यस्त अपराधी नहीं है अपराध की दुनिया से बचाने का प्रयास किया गया है तथा उसे सुधर जाने के कुछ अवसर प्रदान किए गए। यह व्यवस्था किसी अभियुक्त या सिद्धदोष अपराधी के लिए एक राहतभरी है पर इस अधिनियम के अंतर्गत इस व्यवस्था को समाप्त किया गया है। यदि किसी व्यक्ति को इस अधिनियम के अंतर्गत अभियुक्त बनाया जाता है तो उस व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 या अपराधी परिवीक्षा अधिनियम दोनों के ही लाभ नहीं मिलेंगे अर्थात ऐसे व्यक्ति को जिसने पहली बार अपराध किया है तथा जिसकी आयु कम है और जो अभ्यस्त अपराधी नहीं है एवं जिसने कम गंभीर अपराध किया है यह मानकर जो राहत अभियुक्त को दी जाती है वह इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध करने वाले व्यक्ति को नहीं दी जाएगी। धारा 19 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है जिसका मूल स्वरूप यहां इस आलेख में प्रस्तुत किया जा रहा है:- [धारा 19 इस अधिनियम के अधीन अपराध के लिये दोषी व्यक्तियों को संहिता की धारा 360 या अपराधी परिवीक्षा अधिनियम के उपबन्ध का लागू न होना- संहिता की धारा 360 के उपबन्ध और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 (1958 का 20) उपबन्ध अठारह वर्ष से अधिक आयु के ऐसे व्यक्ति के संबंध लागू नहीं होंगे जो इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध करने का दोषी पाया जाता है।] प्रक्रिया संहिता की धारा 360 और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम की धारा 4 की प्रयोज्यता:- अवाजि श्रीपतराव टेकले बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र के प्रकरण में कहा गया है कि जहाँ अत्याचार का अपराध अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम के प्रावधानों के अधीन कारित किया गया था, वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम की धारा 4 के प्रावधान लागू नहीं होते हैं। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 20 उक्त अधिनियम के प्रावधानों को अन्य विधि पर अभिभावी प्रभाव प्रदान करती है, इसलिए अभियुक्त परिवीक्षा के लाभ का हकदार नहीं है। परिवीक्षा अनुदत्त किये जाने में विचार किये जाने वाले कारक:- जय सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1983) 1 क्राइम्स 331 (पी० एंड एच०), में यह धारित किया गया था कि दोषसिद्ध को परिवीक्षा पर छोड़ने के लिए आयु एकमात्र मापदंड नहीं है। वह रीति जिसमें अभियुक्त ने अपराध में भाग लिया था और उसका चरित्र और पूर्ववृत्त विचार में लिये जाने होते हैं। इसके अतिरिक्त वह परिस्थितियाँ जिनमें अपराध किया गया था भार के रूप में तुला में आयु कारक को प्रत्यादेशित करने के लिए रखना होता है। एक मामले में अभियुक्त 21 वर्ष से कम आयु का पाया गया:- अभियुक्त परिवीक्षा पर छोड़ा गया- मामले में अभियुक्त याचिकाकर्ता घटना के समय 21 वर्ष से कम आयु का था और अभिलेख में उसके विरुद्ध यह दर्शित करने के लिए कुछ नहीं था कि वह पूर्व दोषसिद्ध था परिणामतः न्यायालय ने धारित किया कि यह उपयुक्त मामला था जिसमें कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 का लाभ उसे दिया जाए। अभियुक्त याचिकाकर्ता का दंड निलम्बित किया गया और इसके सिवाय वह सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़े जाने को आदेशित किया गया। 3)- अन्य अधिनियम का प्रभावहीन होना:- अधिनियम की धारा 20 अन्य सभी अधिनियम को इस अधिनियम पर प्रभावहीन कर देती है। दंड प्रक्रिया संहिता भारतीय दंड संहिता और अन्य आपराधिक अधिनियम इस अधिनियम पर प्रभावहीन हो जाते हैं। इस अधिनियम की कोई भी बात यदि अन्य आपराधिक अधिनियम से टकराती है तब ऐसी स्थिति में इस अधिनियम को महत्व दिया जाएगा तथा उन अधिनियम को प्रभावित कर दिया जाएगा जैसा कि इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 360 दंड प्रक्रिया संहिता का लाभ नहीं दिए जाने का निर्देश दिया गया है तथा दंड प्रक्रिया संहिता धारा 360 किसी अपराधी को लाभ देने का निर्देश देती है इस स्थिति में इस अधिनियम को महत्व दिया जाएगा। यह इस अधिनियम की धारा 20 में उल्लेखित किया गया है। धारा 20 का मूल स्वरूप इस प्रकार है:- [धारा 20 अधिनियम का अन्य विधियों पर अध्यारोही होना इस अधिनियम में जैसा अन्यथा उपबन्धित है उसके सिवाय इस अधिनियम के उपबन्ध तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि या किसी रूढ़ि या प्रथा या किसी अन्य विधि के आधार पर प्रभाव रखने वाली किसी लिखत में उससे असंगत किसी बात के होते हुए भी, प्रभावी होंगे।] अन्य अधिनियमों में असंगत प्रावधान- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 20 के अनुसार अधिनियम के प्रावधान किसी अन्य प्रावधान, जो असंगत हों, पर अभिभावी होते हैं। यदि अन्य अधिनियम कोई ऐसा प्रावधान बनाता है, जो इस अधिनियम के अन्य प्रावधानों में असंगत हों, तब यह अभिभावी होगा। चूँकि अधिनियम के अधीन अपराध के विचारण के लिए प्रक्रिया हेतु अधिनियम में कोई प्रावधान विहित नहीं किया गया है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि संहिता में उपबन्धित प्रक्रिया के सामान्य नियम इस अधिनियम से असंगत हैं। यह तथ्य कि विधायिका ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अधीन अपराध के विचारण के लिए कोई विहित प्रक्रिया विहित करते हुए कोई प्रावधान नहीं बनाया है, हालांकि इसने अन्य अधिनियमों में यह सुझाव देने के लिए विनिर्दिष्ट प्रावधान किया है कि यह अधिनियम के अधीन अपराधों के विचारण के लिए कोई विशेष प्रक्रिया विहित करने के लिए कभी भी आशयित नहीं था। यह बात मीरा बाई बनाम भुजबल सिंह, 1995 क्रि० लॉ ज० 2376 (एम० पी०) के मामले में कही गई है। न्यायिक दंडाधिकारी की शक्ति संज्ञान पूर्व अवस्था तक परिसीमित:- सो० सथीयनाथन बनाम वीरामुथू, 2009 क्रि० लॉ ज० 1512 (मद्रास) के मामले में कहा गया है कि इस अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत दंडनीय अपराध विशेष न्यायालय द्वारा निरपेक्षतः विचारणीय है जो कि आवश्यक रूप से सत्र न्यायालय है। अपराध का संज्ञान लेने के पश्चात्, न्यायिक दंडाधिकारी, पुलिस द्वारा अपराध का अन्वेषण करने को निर्देशित नहीं कर सकता है। न्यायिक दंडाधिकारी को अन्वेषण करने को निर्देशित करने की शक्ति संज्ञान पूर्व अवस्था में ही उपलब्ध है। अधिनियम के अन्तर्गत दंडाधिकारी द्वारा वैयक्तिक परिवाद पर अपराध का संज्ञान अनुज्ञेय अधिनियम के अन्तर्गत किये गए अपराध का संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा व्यक्तिगत परिवाद पर लिया जा सकता है और इसलिए दंडाधिकारी के आदेश को इस आधार पर, कि अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराधों के किये जाने का वैयक्तिक परिवाद असमर्थ है, संधार्य नहीं किया जा सकता है, दी गई चुनौती को बनाए नहीं रखा जा सकता है। दांडिक प्रावधानों का गलत या बिना उल्लेख किये परिवाद किया गया दंडाधिकारी उस पर संज्ञान लेने के लिए सक्षम:- सथीयनाथन बनाम वीरामुथू, 2009 क्रि० लॉ ज० 1512, के मामले में यह धारित किया गया था कि परिवादकर्ता की तरफ से दांडिक प्रावधान का उल्लेख करना आबद्धकर नहीं है और भले ही शिकायतकर्ता ने गलत दांडिक प्रावधान को उद्धृत किया है, तो भी दंडाधिकारी को सही दांडिक प्रावधान का उल्लेख करते हुए संज्ञान लेना होता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :11 एफआईआर के लिए किसी जांच की आवश्यकता न होना, अपराधी परिवीक्षा न, मिलना और अन्य अधिनियमों का प्रभावहीन होनाप्रस्तुत मामले में, परिवादी द्वारा गलती से उद्धृत किये गये प्रावधान दंडाधिकारी द्वारा यांत्रिकतः समाविष्ट किये गये थे इसलिए दंडाधिकारी को सही धाराओं का उल्लेख करने और या तो जाँच करने या बिना संज्ञान लिए परिवादी को पुलिस के पास जाने के लिए निर्दिष्ट करने के लिए मामले को वापस किया गया था। TAGSSC ST ACT PREVENTION OF ATROCITIES SC ST SPECIAL COURT Next Story जानिए हमारा कानून अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :10 इस अधिनियम में उल्लेखित किए गए अपराधों के संबंध में अग्रिम जमानत के प्रावधान लागू नहीं होना (धारा-18) Shadab Salim29 Oct 2021 10:10 AM अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) के अंतर्गत धारा 18 अत्यंत महत्वपूर्ण धारा है जो इस अधिनियम के अंतर्गत घोषित किए गए अपराध के संबंध में आरोपी बनाए गए व्यक्तियों अभियुक्त को अग्रिम जमानत न दिए जाने संबंधित है। अर्थात इस कानून के अंतर्गत अभियुक्तों को अग्रिम जमानत का लाभ नहीं मिल सकता। इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम की धारा 18 पर चर्चा की जा रही है। अग्रिम जमानत लागू नहीं होना:- दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 438 अग्रिम जमानत के संबंध में उल्लेख करती है। किसी व्यक्ति को अपनी गिरफ्तारी का भय है तथा उस व्यक्ति को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार किया जा रहा है या किसी प्रकरण में झूठा फंसाया जा रहा है तो वह व्यक्ति गिरफ्तार होने के पूर्व ही सत्र या उच्च न्यायालय से अग्रिम जमानत मांग सकता है। यह न्यायालय का विवेकाधिकार है कि उसे अग्रिम जमानत प्रदान करें या न करें परंतु इस अधिनियम के अंतर्गत जिसे अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के नाम से जाना जाता है की धारा 18 ने स्पष्ट रूप से यह ही कह दिया है कि किसी भी ऐसे व्यक्ति को अग्रिम जमानत प्राप्त करने का अधिकार ही नहीं होगा अर्थात यहां पर न्यायालय के विवेक अधिकार को भी समाप्त कर दिया गया है तथा एक अभियुक्त को जिसे अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अंतर्गत आरोपी बनाया गया है उसे अग्रिम जमानत का आवेदन पत्र करने से भी रोका गया है। इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 18 को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उसका मूल स्वरूप इस आलेख में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है- [अधिनियम के अधीन अपराध करने वाले व्यक्तियों को संहिता की धारा 438 का लागू न होना – संहिता की धारा 438 की कोई बात इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध करने के अभियोग पर किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के किसी मामले के सम्बन्ध में लागू नहीं होगी।] क्षेत्र:- यह धारा स्पष्ट रूप से अधिकधित करती है कि जब अपराध इस अधिनियम के अधीन व्यक्त के विरुद्ध पंजीकृत किया जाता है, तो तब कोई न्यायालय अग्रिम जमानत के लिए आवेदन स्वीकार नहीं करेगा, जब तक वह प्रथम दृष्ट्या यह नहीं पाता कि ऐसा अपराध कारित नहीं किया गया है। अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18, सपठित धारा 438, दंड प्रक्रिया संहिता का क्षेत्र ऐसे है कि यह अग्रिम जमानत की मंजूरी में रोक सृजित करता है, जब तक प्रथम दृष्टया यह न पाया जाय कि ऐसा अपराध नहीं बनता है। जब विशेष अधिनियम में उन व्यक्तियों को, जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जाति से सम्बन्धित थे, संरक्षित करने के लिए प्रावधान किया गया है, तब अधिरोपित रोक को आसानी से हटाया नहीं जा सकता है। प्रयोज्यता:- जहाँ किया गया अपराध, भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधानों के अधीन आता हो, यह अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के विरुद्ध, इसी कारण से कि वह अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति का सदस्य है, कारित किया गया होना चाहिए, इसलिए भारतीय दंड संहिता के अधीन अपराध कारित करने का आशय यह होना चाहिए कि पीड़ित अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति का सदस्य है। यदि भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अपराध उसकी जाति पर विचार बिना किसी अन्य आधार पर फारित किया गया था तब अपराध अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम के प्रावधानों को आकर्षित नहीं करेगा। अग्रिम जमानत पर विधि:- यदि अधिनियम के प्रावधानों का कतिपय अन्य अधिनियमितियों के यथा विरुद्ध, जहाँ अन्तरिम जमानत की मंजूरी अथवा नियमित जमानत की मंजूरी के लिए मामले के विचारण पर समान निर्बंन्धन अधिरोपित किए गये हैं, तुलना करने पर रूचिकर स्थिति उद्भूत होती है। आतंकवाद और विध्वंसकारी गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम, 1985 (संक्षेप में “टाडा”-अब निरसित है) की धारा 17 (4) यह कथन करती थी, “संहिता की धारा 438 में कोई बात इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन दण्डनीय अपराध कारित करने के अभिकधन पर किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी को अन्तर्ग्रस्त करने वाले किसी मामले के सम्बन्ध में लागू नहीं होगी”। टाढा अधिनियम की धारा 17 (5) पुनः टाडा अधिनियम के अधीन दण्डनीय अपराध के अभियुक्त पर नियमित जमानत पर निर्मुक्त किए जाने के लिए निर्बंधन अधिरोपित करती है और शर्तों में से एक थी जहाँ लोक अभियोजक जमानत को मंजूरी के लिए आवेदन पत्र का विरोध करता है, वहाँ न्यायालय का यह समाधान होना है कि यह विश्वास करने का युक्तियुक्त आधार था कि अभियुक्त ऐसे अपराध का दोषी नहीं था और यह कि उसका जमानत पर रहते समय ऐसा कोई अपराध कारित करना सम्भाव्य नहीं था विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 (संक्षेप में “यू० ए० पी० ए० अधिनियम”) के प्रावधान अर्थात् धारा 43 प (4) और 43-प (5) के प्रावधान टाडा अधिनियम की पूर्वोक्त धारा 17 (4) और 17 (5) के समान हैं। इसी प्रकार महाराष्ट्र संगठित अपराध नियन्त्रण अधिनियम, 1999 (संक्षेप में “एम० सी० ओ० सी० अधिनियम”) के प्रावधान अर्थात् धारा 21 (3) और 21 (4) भी निबन्धनों में समान है। इस प्रकार इन विशेष अधिनियमितियों के अधीन सम्बद्ध अपराधों को कारित करने वाले अभियुक्त के निर्मुक्ति के प्रभाव पर विधायिका के द्वारा न केवल अग्रिम जमानत के मामले पर विचारण के प्रक्रम वरन् गिरफ्तारी के पश्चात् नियमित जमानत की मंजूरी के प्रक्रम पर भी भलीभांति विचार किया गया था। लेकिन स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (संक्षेप में “एन० डी० पी० एस० अधिनियम”) के प्रावधान इस बाद में भिन्न हैं कि धारा 37 के अधीन निर्बंन्धन उस प्रक्रम पर होता है, जहाँ मामले पर नियमित जमानत को मंजूरी के लिए विचार किया गया हो। ऐसे किसी निर्बंन्धन पर सोचा नहीं गया है और उसे अग्रिम जमानत की मंजूरी के लिए मामले के विचारण के प्रक्रम पर प्रस्तुत नहीं किया गया है। दूसरी तरफ, अधिनियम के प्रावधान सम्पूर्ण रूप में विरुद्ध हैं और धारा 18 में निर्बंन्धन केवल अग्रिम जमानत के लिए मामले पर विचार करने के प्रक्रम पर होता है और ऐसा कोई निर्बंन्धन उपलब्ध नहीं होता है, जबकि मामले पर नियमित जमानत की मंजूरी के लिए विचार किया जाना है। सैद्धान्तिक रूप से यह कथन करना सम्भाव्य है कि संहिता की धारा 438 के अधीन आवेदन पत्र न्यायालय के द्वारा अधिनियम की धारा 18 के अधीन अभिव्यक्त निर्बन्धन के कारण मंजूर किया जा सकता है, परन्तु वही न्यायालय गिरफ्तारी के ठीक पश्चात् संहिता की धारा 437 के प्रावधानों के अधीन जमानत मंजूर कर सकता है। अग्रिम जमानत की मंजूरी पर निर्बन्धन प्रस्तुत करने की इस स्थिति के पीछे कोई आधार प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि नियमित जमानत की मंजूरी के लिए किसी भी रीति में ऐसा कोई प्रतिषेध नहीं है। इसलिए, वह सब, जो अधिक आवश्यक तथा महत्वपूर्ण है, यह है कि अधिनियम की धारा 18 के अधीन अभिव्यक्त अपवर्जन वास्तविक मामलों तक ही सीमित होता है और वहाँ अप्रयोज्यनीय होता है, जहाँ कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है। अग्रिम जमानत के अधिकार का अपवर्जन केवल उस समय प्रयोज्यनीय होता है, यदि मामले को सद्भावपूर्वक होना दर्शाया जाता है और यह कि यह प्रथम दृष्टया अत्याचार अधिनियम के अधीन, न कि अन्यथा आता है। धारा 18 वहाँ लागू नहीं होती है, जहाँ कोई प्रथम दृष्टया मामला न हो अथवा अभिव्यक्त मिथ्या फंसाव का मामला न हो अथवा जब अभिकथन बाह्य कारकों से अभिप्रेरित न हो। यह निःसंदेह सत्य है कि संहिता की धारा 438, जो भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अपराधों के सम्बन्ध में अभियुक्त को उपलब्ध होती है, अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अपराधों के सम्बन्ध में उपलब्ध नहीं होती है। अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन प्रगणित अपराध पृथक् तथा विशेष वर्ग में आते हैं। संविधान का अनुच्छेद 17 अभिव्यक्त रूप में ‘अस्पृश्यता’ की समाप्ति का वर्णन करता है और उसके किसी भी रूप में व्यवहार को प्रतिषिद्ध करता है और यह भी प्रावधान करता है कि ‘अस्पृश्यता’ से उद्भूत किसी निर्योग्यता का प्रवर्तन विधि के अनुसार दण्डनीय होगा। इसलिए अपराध, जो इस अधिनियम की धारा 3 (1) के अधीन प्रगणित हैं, ‘अस्पृश्यता’ के व्यवहार से उद्भूत होते हैं। यह इस संदर्भ में है कि अ० जा० अ० जन० अधिनियम में कतिपय विशेष प्रावधान बनाया गया है, जिसमें धारा 18 के अधीन आक्षेपित प्रावधान शामिल है, जो हमारे समक्ष है। इस अधिनियम के अधीन अपराधों के सम्बन्ध में संहिता की धारा 438 के अपवर्जन को विद्यमान सामाजिक दशाओं, जो ऐसे अपराधों से उद्भूत होती हैं, के संदर्भ में समझा जाना है और यह आशंका कि ऐसे अत्याचारों के अपराधियों का अपने पीड़ित व्यक्तियों को धमकी देना तथा अभित्रासित करना तथा उन्हें इन अपराधियों के अभियोजन में निवारित करना तथा अवरुद्ध करना सम्भाव्य है, यदि अपराधियों को अग्रिम जमानत का उपयोग करने के लिए अनुज्ञात किया जाता है। अग्रिम जमानत के लिए आवेदन:- इस पर जोर दिया जाना है, वह यह है कि अग्रिम जमानत के लिए आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय इसके बारे में मात्र जांच में न्यायसंगत होंगे कि क्या किसी व्यक्ति के विरुद्ध अधिनियम, 1989 की धारा 3 के अधीन मामले को पंजीकृत करने के लिए कोई अभिकथन है और जब एक बार प्रथम सूचना रिपोर्ट में अपराध के आवश्यक तत्व उपलब्ध हों, तब न्यायालय वाद डायरी अथवा कोई अन्य सामग्री मंगा करके इसके बारे में पुनः जांच करने में न्यायसंगत नहीं होंगे कि क्या अभिकथन सत्य अथवा मिथ्या है अथवा क्या ऐसा अपराध कारित करने के लिए संभावनाओं की कोई अधिसंभाव्यता है। ऐसा प्रयोग अग्रिम जमानत के लिए आवेदन स्वीकार करने के विरुद्ध पूर्ण रोक लगाने के लिए आशयित है, जो असंदिग्ध रूप से अधिनियम की धारा 18 के अधीन प्रतिपादित किया गया है। अग्रिम जमानत की पोषणीयता:- अधिनियम की धारा 18 में अधिरोपित निर्बंन्धन की दृष्टि से दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 को धारा 438 के अधीन अग्रिम जमानत के लिए आवेदन पोषणीय नहीं है और अपास्त किये जाने के योग्य है। आर० के० सिंह बनाम राज्य, 2007 (2) क्राइम्स 44 (छत्तीसगढ़) के प्रकरण में कहा गया है जहाँ कि प्रथम सूचना रिपोर्ट के प्रकथन यह तथ्य दर्शित नहीं करते थे कि अभियुक्त परिवादी की जाति को जानता था वहाँ अभियुक्त मात्र भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत ही दण्डित किया जायेगा और अधिनियम को धारा 18 के प्रावधान आकर्षित नहीं होंगे और ऐसी स्थिति में अभियुक्त अग्रिम जमानत में छोड़े जाने का हकदार था। अग्रिम जमानत की मंजूरी:- दासिका राममोहन राव बनाम स्टेट आफ आन्ध्र प्रदेश, 2003 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि चूँकि उप्पारा की जाति समूह “घ” की परिधि के भीतर आती है और प्रथम दृष्टया तथ्यतः परिवादी अनुसूचित जाति से सम्बन्धित नहीं है, इसलिए यह अग्रिम जमानत मंजूर करने के लिए उपयुक्त मामला है। वर्तमान मामले में, मृतक कालेज में परिचारक था। यह अभिकथन किया गया था कि उसने चेक की चोरी कारित की तथा उसे भुना लिया। जब मामले की पुलिस के पास रिपोर्ट को गयी, तो उसने आत्महत्या कारित कर ली। अन्वेषण के दौरान यह प्रकट हुआ कि मात्र इस संदेह पर कि मृतक ने चेक को चुराया था, याची सहित सभी अभियुक्त उसे मानसिक तथा शारीरिक रूप से परेशान कर रहे थे। मात्र यह तथ्य कि तथ्यतः परिवादी तथा मृतक अनुसूचित जाति से सम्बन्धित थे, स्वयं अत्याचार निवारण अधिनियम को आकर्षित नहीं कर सकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अधीन आवेदन अपवर्जित नहीं किया गया था, परन्तु याचीगण के विरुद्ध मृतक को परेशान करने के भिन्न अभिकथन थे, अभिनिर्धारित, वह अग्रिम जमानत का हकदार नहीं था। बापू गोण्डा बनाम स्टेट आफ कर्नाटक, 1996 क्रि० लॉ ज० 1117 के मामले में कहा गया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 अधिनियम की धारा 3 (1) के अधीन अपराध कारित करने वाले व्यक्ति को उपलब्ध नहीं होती है। वर्तमान मामले में पुलिस ने याचीगण के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता को धारा 341, 323, 324, 504 और 506 के अधीन दण्डनीय अपराध के अलावा अधिनियम की धारा 3 के अधीन मामला पंजीकृत किया है। याचीगण ने अग्रिम जमानत को मंजूरी के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 348 के अधीन याचिका दाखिल की थी। इसलिए वर्तमान याचिका पोषणीय नहीं है। अग्रिम जमानत की मंजूरी की वैधानिकता:- बाचू दास बनाम स्टेट आफ बिहार 2014 के मामले में यह स्पष्ट हुआ कि मजिस्ट्रेट ने सावधानीपूर्वक परिवाद याचिका के साथ ही साथ परिवादी के कथन का अवलोकन किया और जांच के दौरान चार साक्षियों को परीक्षा की तथा अभियुक्तों के विरुद्ध प्रथम दृष्टया यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय दण्ड संहिता को धारा 147, 148, 149, 323, 448 और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3 के अधीन अपराध बनता है। ऐसी परिस्थितियों में और अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18 के अधीन रोक की दृष्टि में विलास पाण्डुरंग पवार बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र, के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर विश्वास व्यक्त करते हुए अधिवक्ता ने यह तर्क किया कि उच्च न्यायालय अग्रिम जमानत मंजूर करने में न्यायसंगत नहीं है। समान परिस्थितियों में, उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3 (1) के साथ-ही-साथ धारा 18 के अधीन उपबंधित अपराध पर विचार किया है। उच्चतम न्यायालय का यह समाधान हो गया था कि उच्च न्यायालय ने अग्रिम जमानत मंजूर करने में त्रुटि कारित की है। TAGSSC ST ACT PREVENTION OF ATROCITIES SC ST SPECIAL COURT SIMILAR POSTS + VIEW MORE अनुसूचित जनजातियों की सूची: जानिए कौन सी जातियों को अनुसूचित जनजातियों का दर्जा प्राप्त है 1 Nov 2021 10:22 AM जानिए सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 के दाण्डिक प्रावधान 31 Oct 2021 1:15 PM अनुसूचित जनजातियों को प्राप्त वन अधिकार के बारे में जानिए 31 Oct 2021 10:00 AM अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :11 एफआईआर के लिए किसी जांच की आवश्यकता न होना, अपराधी परिवीक्षा न, मिलना और अन्य अधिनियमों का प्रभावहीन होना 29 Oct 2021 4:19 PM
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